श्रीरामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
सीताजी के न मिलने पर भगवान् श्रीराम की विषाद लीला
हा गुन खानि जानकी सीता।
रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँती।
पूछत चले लता तरु पाँती॥
रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँती।
पूछत चले लता तरु पाँती॥
[वे विलाप करने लगे-] हा गुणोंकी खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत और नियमोंमें पवित्र सीते! लक्ष्मणजीने बहुत प्रकारसे समझाया। तब श्रीरामजी लताओं और वृक्षोंकी पंक्तियोंसे पूछते हुए चले- ॥४॥
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना ।
मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥
तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खंजन सुक कपोत मृग मीना ।
मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥
हे पक्षियो! हे पशुओ! हे भौंरोंकी पंक्तियो! तुमने कहीं मृगनयनी सीताको देखा है? खंजन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरोंका समूह, प्रवीण कोयल, ॥ ५ ॥
कुंद कली दाडिम दामिनी ।
कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा ।
गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥
कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा ।
गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥
कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरदका चन्द्रमा और नागिनी, वरुणका पाश, कामदेवका धनुष, हंस, गज और सिंह-ये सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं ॥६॥
श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं ।
नेकु न संक सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू ।
हरषे सकल पाइ जनु राजू॥
नेकु न संक सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू ।
हरषे सकल पाइ जनु राजू॥
बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मनमें जरा भी शङ्का और संकोच नहीं है। हे जानकी ! सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गये हों। (अर्थात् तुम्हारे अंगोंके सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभाके अभिमानमें फूल रहे हैं)॥७॥
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं।
प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी ।
मनहुँ महा बिरही अति कामी॥
प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी ।
मनहुँ महा बिरही अति कामी॥
तुमसे यह अनख (स्पर्धा) कैसे सही जाती है ? हे प्रिये! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती? इस प्रकार [अनन्त ब्रह्माण्डोंके अथवा महामहिमामयी स्वरूपाशक्ति श्रीसीताजीके] स्वामी श्रीरामजी सीताजीको खोजते हुए [इस प्रकार] विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यन्त कामी पुरुष हो॥८॥
पूरनकाम राम सुख रासी ।
मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा ।
सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा।
मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा ।
सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा।
पूर्णकाम, आनन्दकी राशि, अजन्मा और अविनाशी श्रीरामजी मनुष्योंके-से चरित्र कर रहे हैं । आगे [जानेपर] उन्होंने गृध्रपति जटायुको पड़ा देखा। वह श्रीरामजीके चरणोंका स्मरण कर रहा था, जिनमें [ध्वजा, कुलिश आदिको] रेखाएँ (चिह्न) हैं ॥९॥
दो०- कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रघुबीर।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥३०॥
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥३०॥
कृपासागर श्रीरघुवीरने अपने करकमलसे उसके सिरका स्पर्श किया (उसके सिरपर कर-कमल फेर दिया)। शोभाधाम श्रीरामजीका [परम सुन्दर] मुख देखकर उसकी सब पीड़ा जाती रही ॥ ३० ॥
तब कह गीध बचन धरि धीरा।
सुनहु राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही ।
तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥
सुनहु राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही ।
तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥
तब धीरज धरकर गीधने यह वचन कहा-हे भव (जन्म-मृत्यु) के भयका नाश करनेवाले श्रीरामजी! सुनिये। हे नाथ! रावणने मेरी यह दशा की है। उसी दुष्टने जानकीजीको हर लिया है॥१॥
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाईं।
बिलपति अति कुररी की नाईं॥
दरस लागि प्रभु राखेउँ प्राना।
चलन चहत अब कृपानिधाना॥
बिलपति अति कुररी की नाईं॥
दरस लागि प्रभु राखेउँ प्राना।
चलन चहत अब कृपानिधाना॥
हे गोसाईं ! वह उन्हें लेकर दक्षिण दिशाको गया है। सीताजी कुररी (कुर्ज) की तरह अत्यन्त विलाप कर रही थीं। हे प्रभो! मैंने आपके दर्शनोंके लिये ही प्राण रोक रखे थे। हे कृपानिधान ! अब ये चलना ही चाहते हैं ॥२॥
राम कहा तनु राखहु ताता ।
मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जाकर नाम मरत मुख आवा।
अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥
मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जाकर नाम मरत मुख आवा।
अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥
श्रीरामचन्द्रजीने कहा-हे तात! शरीरको बनाये रखिये। तब उसने मुसकराते हुए मुँहसे यह बात कही-मरते समय जिनका नाम मुखमें आ जानेसे अधम (महान् पापी) भी मुक्त हो जाता है, ऐसा वेद गाते हैं- ॥३॥
सो मम लोचन गोचर आगें।
राखौं देह नाथ केहि खाँगें।
जल भरि नयन कहहिं रघुराई ।
तात कर्म निज तें गति पाई॥
राखौं देह नाथ केहि खाँगें।
जल भरि नयन कहहिं रघुराई ।
तात कर्म निज तें गति पाई॥
वही (आप) मेरे नेत्रों के विषय होकर सामने खड़े हैं। हे नाथ! अब मैं किस कमी [की पूर्ति के लिये देहको रखू? नेत्रोंमें जल भरकर श्रीरघुनाथजी कहने लगे हे तात! आपने अपने श्रेष्ठ कर्मोंसे [दुर्लभ] गति पायी है ॥४॥
परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तजि तात जाहु मम धामा ।
देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तजि तात जाहु मम धामा ।
देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥
जिनके मनमें दूसरेका हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिये जगत्में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है। हे तात ! शरीर छोड़कर आप मेरे परम धाममें जाइये। मैं आपको क्या दूं? आप तो पूर्णकाम हैं (सब कुछ पा चुके हैं) ॥५॥
दो०- सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥३१॥
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥३१॥
हे तात! सीताहरणकी बात आप जाकर पिताजीसे न कहियेगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्बसहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा॥३१॥
गीध देह तजि धरि हरि रूपा ।
भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी।
अस्तुति करत नयन भरि बारी॥
भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी।
अस्तुति करत नयन भरि बारी॥
जटायुने गीधकी देह त्यागकर हरिका रूप धारण किया और बहुत-से अनुपम (दिव्य) आभूषण और [दिव्य] पीताम्बर पहन लिये। श्याम शरीर है, विशाल चार भुजाएँ हैं और नेत्रोंमें [प्रेम तथा आनन्दके आँसुओंका] जल भरकर वह स्तुति कर रहा है— ॥१॥
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