श्रीरामचरितमानस (अरण्यकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
भगवान् राम का सीताजी को अग्निप्रवेश का निर्देश
दो०- लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बंद॥२३॥
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बंद॥२३॥
लक्ष्मणजी जब कन्द-मूल-फल लेनेके लिये वनमें गये, तब [अकेलेमें] कृपा और सुखके समूह श्रीरामचन्द्रजी हँसकर जानकीजीसे बोले- ॥ २३ ॥
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला ।
मैं कछु करबि ललित नरलीला।।
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा ।
जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
मैं कछु करबि ललित नरलीला।।
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा ।
जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
हे प्रिये! हे सुन्दर पातिव्रत-धर्मका पालन करनेवाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य-लीला करूँगा। इसलिये जबतक मैं राक्षसोंका नाश करूँ, तबतक तुम अग्निमें निवास करो॥१॥
जबहिं राम सब कहा बखानी ।
प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता ।
तैसइ सील रूप सुबिनीता॥
प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता ।
तैसइ सील रूप सुबिनीता॥
श्रीरामजीने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यों ही श्रीसीताजी प्रभुके चरणोंको हृदयमें धरकर अग्निमें समा गयीं। सीताजीने अपनी ही छायामूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके-जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी॥२॥
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना ।
जो कछु चरित रचा भगवाना।
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा ।
नाइ माथ स्वारथ रत नीचा।।
जो कछु चरित रचा भगवाना।
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा ।
नाइ माथ स्वारथ रत नीचा।।
भगवान् ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्यको लक्ष्मणजीने भी नहीं जाना। स्वार्थपरायण और नीच रावण वहाँ गया जहाँ मारीच था और उसको सिर नवाया॥३॥
नवनि नीच कै अति दुखदाई।
जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।
भयदायक खल कै प्रिय बानी ।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥
जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई।
भयदायक खल कै प्रिय बानी ।
जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥
नीचका झुकना (नम्रता) भी अत्यन्त दुःखदायी होता है। जैसे अङ्कुश, धनुष, साँप और बिल्लीका झुकना। हे भवानी ! दुष्टकी मीठी वाणी भी [उसी प्रकार] भय देनेवाली होती है, जैसे बिना ऋतुके फूल!॥ ४॥
दो०- करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥२४॥
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥२४॥
तब मारीचने उसकी पूजा करके आदरपूर्वक बात पूछी-हे तात! आपका मन किस कारण इतना अधिक व्यग्र है और आप अकेले आये हैं ?॥२४॥
दसमुख सकल कथा तेहि आगें।
कही सहित अभिमान अभागें।
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी।
जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥
कही सहित अभिमान अभागें।
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी।
जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥
भाग्यहीन रावणने सारी कथा अभिमानसहित उसके सामने कही [और फिर कहा-] तुम छल करनेवाले कपट-मृग बनो, जिस उपायसे मैं उस राजवधूको हर लाऊँ॥१॥
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा ।
ते नररूप चराचर ईसा॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै।
मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥
ते नररूप चराचर ईसा॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै।
मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥
तब उसने (मारीचने) कहा-हे दशशीश! सुनिये। वे मनुष्यरूपमें चराचरके ईश्वर हैं। हे तात! उनसे वैर न कीजिये। उन्हींके मारनेसे मरना और उनके जिलानेसे जीना होता है (सबका जीवन-मरण उन्हींके अधीन है)॥२॥
मुनि मख राखन गयउ कुमारा।
बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा।
सत जोजन आयउँ छन माहीं।
तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥
बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा।
सत जोजन आयउँ छन माहीं।
तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥
यही राजकुमार मुनि विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षाके लिये गये थे। उस समय श्रीरघुनाथजीने बिना फलका बाण मुझे मारा था, जिससे मैं क्षणभरमें सौ योजनपर आ गिरा। उनसे वैर करने में भलाई नहीं है ॥३॥
भइ मम कीट भंग की नाई।
जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा ।
तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥
जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा ।
तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥
मेरी दशा तो भृङ्गीके कीड़ेकी-सी हो गयी है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्रीराम-लक्ष्मण दोनों भाइयोंको ही देखता हूँ। और हे तात! यदि वे मनुष्य हैं तो भी बड़े शूरवीर हैं। उनसे विरोध करने में पूरा न पड़ेगा (सफलता नहीं मिलेगी)॥४॥
दो०- जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥२५॥
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड॥२५॥
जिसने ताड़का और सुबाहुको मारकर शिवजीका धनुष तोड़ दिया और खर, दूषण और त्रिशिराका वध कर डाला, ऐसा प्रचण्ड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है? ॥२५॥
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