श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
श्रीराम-भरत-संवाद
गुर नृप भरत सभा अवलोकी।
सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥
सील सराहि सभा सब सोची।
कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची।
सकुचि राम फिरि अवनि बिलोकी॥
सील सराहि सभा सब सोची।
कहुँ न राम सम स्वामि सँकोची।
श्रीरामचन्द्रजीने गुरु वसिष्ठजी, राजा जनकजी, भरतजी और सारी सभाकी ओर देखा, किन्तु फिर सकुचाकर दृष्टि फेरकर वे पृथ्वीकी ओर ताकने लगे। सभा उनके शीलकी सराहना करके सोचती है कि श्रीरामचन्द्रजीके समान संकोची स्वामी कहीं नहीं हैं ॥२॥
भरत सुजान राम रुख देखी।
उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी।
करि दंडवत कहत कर जोरी।
राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥
उठि सप्रेम धरि धीर बिसेषी।
करि दंडवत कहत कर जोरी।
राखीं नाथ सकल रुचि मोरी॥
सुजान भरतजी श्रीरामचन्द्रजीका रुख देखकर प्रेमपूर्वक उठकर, विशेषरूपसे धीरज धारणकर दण्डवत् करके हाथ जोड़कर कहने लगे-हे नाथ! आपने मेरी सभी रुचियाँ रखीं ॥३॥
मोहि लगि सहेउ सबहिं संतापू।
बहुत भाँति दुखु पावा आपू॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई।
सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥
बहुत भाँति दुखु पावा आपू॥
अब गोसाइँ मोहि देउ रजाई।
सेवौं अवध अवधि भरि जाई॥
मेरे लिये सब लोगों ने सन्ताप सहा और आपने भी बहुत प्रकार से दुःख पाया। अब स्वामी मुझे आज्ञा दें। मैं जाकर अवधिभर (चौदह वर्षतक) अवधका सेवन करूँ॥४॥
जेहिं उपाय पुनि पाय जनु देखै दीनदयाल।
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल॥३१३॥
सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल॥३१३॥
हे दीनदयालु ! जिस उपायसे यह दास फिर चरणोंका दर्शन करे-हे कोसलाधीश! हे कृपालु! अवधिभरके लिये मुझे वही शिक्षा दीजिये॥ ३१३ ॥
पुरजन परिजन प्रजा गोसाईं।
सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं।
राउर बदि भल भव दुख दाहू।
प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥
सब सुचि सरस सनेहँ सगाईं।
राउर बदि भल भव दुख दाहू।
प्रभु बिनु बादि परम पद लाहू॥
हे गोसाईं! आपके प्रेम और सम्बन्धसे अवधपुरवासी, कुटुम्बी और प्रजा सभी पवित्र और रस (आनन्द) से युक्त हैं। आपके लिये भवदुःख (जन्म-मरणके दुःख) की ज्वालामें जलना भी अच्छा है और प्रभु (आप) के बिना परमपद (मोक्ष) का लाभ भी व्यर्थ है॥१॥
स्वामि सुजानु जानि सब ही की।
रुचि लालसा रहनि जन जी की।
प्रनतपालु पालिहि सब काहू।
देउ दुहू दिसि ओर निबाहू॥
रुचि लालसा रहनि जन जी की।
प्रनतपालु पालिहि सब काहू।
देउ दुहू दिसि ओर निबाहू॥
हे स्वामी! आप सुजान हैं, सभीके हृदयकी और मुझ सेवकके मनकी रुचि, लालसा (अभिलाषा) और रहनी जानकर, हे प्रणतपाल! आप सब किसीका पालन करेंगे और हे देव! दोनों तरफको ओर-अन्ततक निबाहेंगे॥२॥
अस मोहि सब बिधि भूरि भरोसो।
किएँ बिचारु न सोचु खरो सो॥
आरति मोर नाथ कर छोहू।
दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू॥
किएँ बिचारु न सोचु खरो सो॥
आरति मोर नाथ कर छोहू।
दुहुँ मिलि कीन्ह ढीठु हठि मोहू॥
मुझे सब प्रकारसे ऐसा बहुत बड़ा भरोसा है। विचार करनेपर तिनकेके बराबर (जरा-सा) भी सोच नहीं रह जाता। मेरी दीनता और स्वामीका स्नेह दोनोंने मिलकर मुझे जबर्दस्ती ढीठ बना दिया है।३।।
यह बड़ दोषु दूरि करि स्वामी।
तजि सकोच सिखइअ अनुगामी॥
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी।
खीर नीर बिबरन गति हंसी॥
तजि सकोच सिखइअ अनुगामी॥
भरत बिनय सुनि सबहिं प्रसंसी।
खीर नीर बिबरन गति हंसी॥
हे स्वामी ! इस बड़े दोषको दूर करके संकोच त्यागकर मुझ सेवकको शिक्षा दीजिये। दूध और जलको अलग-अलग करनेमें हंसिनीकी-सी गतिवाली भरतजीकी विनती सुनकर उसकी सभीने प्रशंसा की॥४॥
दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन।
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन॥३१४॥
देस काल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन॥३१४॥
दीनबन्धु और परम चतुर श्रीरामजी भाई भरतजीके दीन और छलरहित वचन सुनकर देश, काल और अवसरके अनुकूल वचन बोले- ॥३१४॥
तात तुम्हारि मोरि परिजन की।
चिंता गुरहि नृपहि घर बन की।
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू।
हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू॥
चिंता गुरहि नृपहि घर बन की।
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू।
हमहि तुम्हहि सपनेहुँ न कलेसू॥
हे तात! तुम्हारी, मेरी, परिवारकी, घरकी और वनकी सारी चिन्ता गुरु वसिष्ठजी और महाराज जनकजीको है। हमारे सिरपर जब गुरुजी, मुनि विश्वामित्रजी और मिथिलापति जनकजी हैं, तब हमें और तुम्हें स्वप्नमें भी क्लेश नहीं है ॥१॥
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु।
स्वारथु सुजसु धरम परमारथु॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाईं।
लोक बेद भल भूप भलाईं।
स्वारथु सुजसु धरम परमारथु॥
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाईं।
लोक बेद भल भूप भलाईं।
मेरा और तुम्हारा तो परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश, धर्म और परमार्थ इसीमें है कि हम दोनों भाई पिताजीकी आज्ञाका पालन करें। राजाकी भलाई (उनके व्रतकी रक्षा) से ही लोक और वेद दोनोंमें भला है॥२॥
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें।
चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें।
अस बिचारि सब सोच बिहाई।
पालहु अवध अवधि भरि जाई।
चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें।
अस बिचारि सब सोच बिहाई।
पालहु अवध अवधि भरि जाई।
गुरु, पिता, माता और स्वामीकी शिक्षा (आज्ञा)का पालन करनेसे कुमार्गपर भी चलनेसे पैर गड्ढेमें नहीं पड़ता (पतन नहीं होता)। ऐसा विचारकर सब सोच छोड़कर अवध जाकर अवधिभर उसका पालन करो॥३॥
देसु कोसु परिजन परिवारू।
गुर पद रजहिं लाग छरुभारू॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी।
पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी॥
गुर पद रजहिं लाग छरुभारू॥
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी।
पालेहु पुहुमि प्रजा रजधानी॥
देश, खजाना, कुटुम्ब, परिवार आदि सबकी जिम्मेदारी तो गुरुजीकी चरण-रजपर है। तुम तो मुनि वसिष्ठजी, माताओं और मन्त्रियोंकी शिक्षा मानकर तदनुसार पृथ्वी, प्रजा और राजधानीका पालन (रक्षा) भर करते रहना ॥४॥
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥३१५ ॥
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥३१५ ॥
तुलसीदासजी कहते हैं- [श्रीरामजीने कहा-] मुखिया मुखके समान होना चाहिये, जो खाने-पीनेको तो एक (अकेला) है, परन्तु विवेकपूर्वक सब अंगोंका पालन-पोषण करता है।३१५ ॥
राजधरम सरबसु एतनोई।
जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती।
बिनु अधार मन तोषु न साँती॥
जिमि मन माहँ मनोरथ गोई॥
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भाँती।
बिनु अधार मन तोषु न साँती॥
राजधर्मका सर्वस्व (सार) भी इतना ही है। जैसे मनके भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्रीरघुनाथजीने भाई भरतको बहुत प्रकारसे समझाया। परन्तु कोई अवलम्बन पाये बिना उनके मनमें न सन्तोष हुआ, न शान्ति ॥१॥
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