श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
इन्द्र की चिन्ता
राम भगतिमय भरतु 'निहारे।
सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥
सब कोउ राम पेममय पेखा।
भए अलेख सोच बस लेखा।
सुर स्वारथी हहरि हियँ हारे॥
सब कोउ राम पेममय पेखा।
भए अलेख सोच बस लेखा।
और तब श्रीरामभक्ति से ओतप्रोत भरतजी को देखा। इन सबको देखकर स्वार्थी देवता घबड़ाकर हृदयमें हार मान गये (निराश हो गये)। उन्होंने सब किसीको श्रीरामप्रेममें सराबोर देखा। इससे देवता इतने सोचके वश हो गये कि जिसका कोई हिसाब नहीं ॥४॥
रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराजु।
रचहु प्रपंचहि,पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥२९४॥
रचहु प्रपंचहि,पंच मिलि नाहिं त भयउ अकाजु॥२९४॥
देवराज इन्द्र सोचमें भरकर कहने लगे कि श्रीरामचन्द्रजी तो स्नेह और संकोचके वशमें हैं। इसलिये सब लोग मिलकर कुछ प्रपञ्च (माया) रचो; नहीं तो काम बिगड़ा [ही समझो] ॥२९४॥
सुरन्ह सुमिरि सारदा सराही।
देबि देव सरनागत पाही॥
फेरि भरत मति करि निज माया।
पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥
देबि देव सरनागत पाही॥
फेरि भरत मति करि निज माया।
पालु बिबुध कुल करि छल छाया॥
देवताओंने सरस्वतीका स्मरण कर उनकी सराहना (स्तुति) की और कहा-हे देवि! देवता आपके शरणागत हैं, उनकी रक्षा कीजिये। अपनी माया रचकर भरतजीकी बुद्धिको फेर दीजिये। और छलकी छाया कर देवताओंके कुलका पालन (रक्षा) कीजिये॥१॥
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