श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)
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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।
भरतजी चित्रकूटके मार्ग में
एहि बिधि भरत चले मग जाहीं।
दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा।
उमगत पेमु मनहुँ चहु पासा॥
दसा देखि मुनि सिद्ध सिहाहीं॥
जबहिं रामु कहि लेहिं उसासा।
उमगत पेमु मनहुँ चहु पासा॥
इस प्रकार भरतजी मार्गमें चले जा रहे हैं। उनकी [प्रेममयी] दशा देखकर मुनि और सिद्ध लोग भी सिहाते हैं। भरतजी जभी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते हैं, तभी मानो चारों ओर प्रेम उमड़ पड़ता है॥३॥
द्रवहिं बचन सनि कुलिस पषाना।
पुरजन पेम न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए।
निरखि नीरु लोचन जल छाए॥
पुरजन पेम न जाइ बखाना॥
बीच बास करि जमुनहिं आए।
निरखि नीरु लोचन जल छाए॥
उनके [प्रेम और दीनतासे पूर्ण] वचनों को सुनकर वज्र और पत्थर भी पिघल जाते हैं। अयोध्यावासियों का प्रेम कहते नहीं बनता। बीच में निवास (मुकाम) करके भरतजी यमुनाजी के तटपर आये। यमुनाजीका जल देखकर उनके नेत्रों में जल भर आया।॥ ४॥
रघुबर बरन बिलोकि बर बारि समेत समाज।
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥२२०॥
होत मगन बारिधि बिरह चढ़े बिबेक जहाज॥२२०॥
श्रीरघुनाथजी के (श्याम) रंगका सुन्दर जल देखकर सारे समाजसहित भरतजी [प्रेमविह्वल होकर] श्रीरामजी के विरहरूपी समुद्र में डूबते-डूबते विवेकरूपी जहाजपर चढ़ गये (अर्थात् यमुनाजीका श्यामवर्ण जल देखकर सब लोग श्यामवर्ण भगवान्के प्रेम में विह्वल हो गये और उन्हें न पाकर विरहव्यथा से पीड़ित हो गये; तब भरतजी को यह ध्यान आया कि जल्दी चलकर उनके साक्षात् दर्शन करेंगे, इस विवेकसे वे फिर उत्साहित हो गये) ॥२२०॥
जमुन तीर तेहि दिन करि बासू।
भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी।
आईं अगनित जाहिं न बरनी॥
भयउ समय सम सबहि सुपासू॥
रातिहिं घाट घाट की तरनी।
आईं अगनित जाहिं न बरनी॥
उस दिन यमुनाजी के किनारे निवास किया। समयानुसार सबके लिये [खान-पान आदिकी] सुन्दर व्यवस्था हुई। [निषादराजका सङ्केत पाकर] रात-ही-रात में घाट घाट की अगणित नावें वहाँ आ गयीं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥१॥
प्रात पार भए एकहि खेवाँ।
तोषे रामसखा की सेवाँ।
चले नहाइ नदिहि सिर नाई।
साथ निषादनाथ दोउ भाई॥
तोषे रामसखा की सेवाँ।
चले नहाइ नदिहि सिर नाई।
साथ निषादनाथ दोउ भाई॥
सबेरे एक ही खेवेमें सब लोग पार हो गये और श्रीरामचन्द्रजीके सखा निषादराजकी इस सेवासे सन्तुष्ट हुए। फिर स्नान करके और नदीको सिर नवाकर निषादराजके साथ दोनों भाई चले॥२॥
आगें मुनिबर बाहन आछे।
राजसमाज जाइ सबु पाछे॥
तेहि पाछे दोउ बंधु पयादें।
भूषन बसन बेष सुठि सादें।
राजसमाज जाइ सबु पाछे॥
तेहि पाछे दोउ बंधु पयादें।
भूषन बसन बेष सुठि सादें।
आगे अच्छी-अच्छी सवारियोंपर श्रेष्ठ मुनि हैं, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है। उसके पीछे दोनों भाई बहुत सादे भूषण-वस्त्र और वेषसे पैदल चल रहे हैं ॥३॥
सेवक सुहृद सचिवसुत साथा।
सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा।
तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥
सुमिरत लखनु सीय रघुनाथा॥
जहँ जहँ राम बास बिश्रामा।
तहँ तहँ करहिं सप्रेम प्रनामा॥
सेवक, मित्र और मन्त्रीके पुत्र उनके साथ हैं। लक्ष्मण, सीताजी और श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते जा रहे हैं। जहाँ-जहाँ श्रीरामजीने निवास और विश्राम किया था, वहाँ-वहाँ वे प्रेमसहित प्रणाम करते हैं ॥४॥
मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥२२१॥
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ॥२२१॥
मार्गमें रहनेवाले स्त्री-पुरुष यह सुनकर घर और काम-काज छोड़कर दौड़ पड़ते हैं और उनके रूप (सौन्दर्य) और प्रेमको देखकर वे सब जन्म लेनेका फल पाकर आनन्दित होते हैं।। २२१॥
कहहिं सपेम एक एक पाहीं।
रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली।
सीलु सनेहु सरिस सम चाली।
रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं॥
बय बपु बरन रूपु सोइ आली।
सीलु सनेहु सरिस सम चाली।
गाँवोंकी स्त्रियाँ एक-दूसरीसे प्रेमपूर्वक कहती हैं-सखी ! ये राम-लक्ष्मण हैं कि नहीं? हे सखी! इनकी अवस्था, शरीर और रंग-रूप तो वही है। शील, स्नेह उन्हींके सदृश है और चाल भी उन्हींके समान है॥१॥
बेषु न सो सखि सीय न संगा।
आगे अनी चली चतुरंगा॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा।
सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥
आगे अनी चली चतुरंगा॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा।
सखि संदेहु होइ एहिं भेदा॥
परन्तु हे सखी ! इनका न तो वह वेष (वल्कलवस्त्रधारी मुनिवेष) है, न सीताजी ही संग हैं। और इनके आगे चतुरङ्गिणी सेना चली जा रही है। फिर इनके मुख प्रसन्न नहीं हैं, इनके मनमें खेद है। हे सखी ! इसी भेदके कारण सन्देह होता है॥२॥
तासु तरक तियगन मन मानी।
कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी।
बोली मधुर बचन तिय दूजी॥
कहहिं सकल तेहि सम न सयानी॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी।
बोली मधुर बचन तिय दूजी॥
उसका तर्क (युक्ति) अन्य स्त्रियोंके मन भाया। सब कहती हैं कि इसके समान सयानी (चतुर) कोई नहीं है। उसकी सराहना करके और 'तेरी वाणी सत्य है' इस प्रकार उसका सम्मान करके दूसरी स्त्री मीठे वचन बोली ॥३॥
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू।
जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी।
सील सनेह सुभाय सुभागी॥
जेहि बिधि राम राज रस भंगू॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी।
सील सनेह सुभाय सुभागी॥
श्रीरामजीके राजतिलकका आनन्द जिस प्रकारसे भंग हुआ था वह सब कथाप्रसंग प्रेमपूर्वक कहकर फिर वह भाग्यवती स्त्री श्रीभरतजीके शील, स्नेह और स्वभावकी सराहना करने लगी ॥४॥
चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥२२२॥
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु॥२२२॥
[वह बोली-] देखो, ये भरतजी पिताके दिये हुए राज्यको त्यागकर पैदल चलते और फलाहार करते हुए श्रीरामजीको मनानेके लिये जा रहे हैं। इनके समान आज कौन है? ॥ २२२॥
भायप भगति भरत आचरनू।
कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई।
राम बंधु अस काहे न होई॥
कहत सुनत दुख दूषन हरनू॥
जो किछु कहब थोर सखि सोई।
राम बंधु अस काहे न होई॥
भरतजीका भाईपना, भक्ति और इनके आचरण कहने और सुननेसे दुःख और दोषोंके हरनेवाले हैं। हे सखी! उनके सम्बन्धमें जो कुछ भी कहा जाय, वह थोड़ा है। श्रीरामचन्द्रजीके भाई ऐसे क्यों न हों? ॥ १ ॥
हम सब सानुज भरतहि देखें।
भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें।
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं।
कैकई जननि जोगु सुतु नाहीं॥
भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें।
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं।
कैकई जननि जोगु सुतु नाहीं॥
छोटे भाई शत्रुघ्नसहित भरतजीको देखकर हम सब भी आज धन्य (बड़भागिनी) स्त्रियोंकी गिनतीमें आ गयीं। इस प्रकार भरतजीके गुण सुनकर और उनकी दशा देखकर स्त्रियाँ पछताती हैं और कहती हैं-यह पुत्र कैकेयी-जैसी माताके योग्य नहीं है ॥२॥
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन।
बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन।
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी।
लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥
बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन।
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी।
लघु तिय कुल करतूति मलीनी॥
कोई कहती हैं- इसमें रानीका भी दोष नहीं है। यह सब विधाताने ही किया है, जो हमारे अनुकूल है। कहाँ तो हम लोक और वेद दोनोंकी विधि (मर्यादा) से हीन, कुल और करतूत दोनोंसे मलिन तुच्छ स्त्रियाँ, ॥ ३॥
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा।
कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा।
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा।
जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥
कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा।
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा।
जनु मरुभूमि कलपतरु जामा॥
जो बुरे देश (जंगली प्रान्त) और बुरे गाँवमें बसती हैं और [स्त्रियोंमें भी] नीच स्त्रियाँ हैं! और कहाँ यह महान् पुण्योंका परिणामस्वरूप इनका दर्शन ! ऐसा ही आनन्द और आश्चर्य गाँव-गाँव में हो रहा है। मानो मरुभूमिमें कल्पवृक्ष उग गया हो॥४॥
भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥२२३॥
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु॥२२३॥
भरतजीका स्वरूप देखते ही रास्तेमें रहनेवाले लोगोंके भाग्य खुल गये ! मानो दैवयोगसे सिंहलद्वीपके बसनेवालोंको तीर्थराज प्रयाग सुलभ हो गया हो!।। २२३ ॥
निज गुन सहित राम गुन गाथा।
सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा ॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा।
निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥
सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा ॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा।
निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा॥
[इस प्रकार] अपने गुणोंसहित श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी कथा सुनते और श्रीरघुनाथजीको स्मरण करते हुए भरतजी चले जा रहे हैं। वे तीर्थ देखकर स्नान और मुनियोंके आश्रम तथा देवताओंके मन्दिर देखकर प्रणाम करते हैं, ॥१॥
मनहीं मन मागहिं बरु एहू।
सीय राम पद पदुम सनेहू॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी।
बैखानस बटु जती उदासी॥
सीय राम पद पदुम सनेहू॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी।
बैखानस बटु जती उदासी॥
और मन-ही-मन यह वरदान माँगते हैं कि श्रीसीतारामजीके चरणकमलोंमें प्रेम हो। मार्गमें भील, कोल आदि वनवासी तथा वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी, संन्यासी और विरक्त मिलते हैं ॥ २॥
करि प्रनामु [छहिं जेहि तेही।
केहि बन लखनु रामु बैदेही।
ते प्रभु समाचार सब कहहीं।
भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥
केहि बन लखनु रामु बैदेही।
ते प्रभु समाचार सब कहहीं।
भरतहि देखि जनम फलु लहहीं॥
उनमेंसे जिस-तिससे प्रणाम करके पूछते हैं कि लक्ष्मणजी, श्रीरामजी और जानकीजी किस वनमें हैं? वे प्रभुके सब समाचार कहते हैं और भरतजीको देखकर जन्मका फल पाते हैं ॥३॥
जे जन कहहिं कुसल हम देखे।
ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी।
सुनत राम बनबास कहानी॥
ते प्रिय राम लखन सम लेखे॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी।
सुनत राम बनबास कहानी॥
जो लोग कहते हैं कि हमने उनको कुशलपूर्वक देखा है, उनको ये श्रीराम लक्ष्मणके समान ही प्यारे मानते हैं। इस प्रकार सबसे सुन्दर वाणीसे पूछते और श्रीरामजीके वनवासकी कहानी सुनते जाते हैं ॥ ४॥
तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥२२४॥
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ॥२२४॥
उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रात:काल ही श्रीरघुनाथजीका स्मरण करके चले। साथके सब लोगोंको भी भरतजीके समान ही श्रीरामजीके दर्शनकी लालसा [लगी हुई है ॥ २२४॥
मंगल सगुन होहिं सब काहू।
फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
भरतहि सहित समाज उछाहू।
मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥
फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू॥
भरतहि सहित समाज उछाहू।
मिलिहहिं रामु मिटिहि दुख दाहू॥
सबको मङ्गलसूचक शकुन हो रहे हैं। सुख देनेवाले [पुरुषोंके दाहिने और स्त्रियोंके बायें] नेत्र और भुजाएँ फड़क रही हैं। समाजसहित भरतजीको उत्साह हो रहा है कि श्रीरामचन्द्रजी मिलेंगे और दुःखका दाह मिट जायगा ॥१॥
करत मनोरथ जस जियँ जाके।
जाहिं सनेह सुराँ सब छाके॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं।
बिहबल बचन पेम बस बोलहिं॥
जाहिं सनेह सुराँ सब छाके॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं।
बिहबल बचन पेम बस बोलहिं॥
जिसके जीमें जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब स्नेहरूपी मदिरासे छके (प्रेममें मतवाले हुए) चले जा रहे हैं। अङ्ग शिथिल हैं, रास्तेमें पैर डगमगा रहे हैं और प्रेमवश विह्वल वचन बोल रहे हैं ॥२॥
रामसखाँ तेहि समय देखावा।
सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा।
सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
सैल सिरोमनि सहज सुहावा॥
जासु समीप सरित पय तीरा।
सीय समेत बसहिं दोउ बीरा॥
रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वतशिरोमणि कामदगिरि दिखलाया, जिसके निकट ही पयस्विनी नदीके तटपर सीताजीसमेत दोनों भाई निवास करते हैं॥३॥
देखि करहिं सब दंड प्रनामा।
कहि जय जानकि जीवन रामा॥
प्रेम मगन अस राज समाजू।
जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥
कहि जय जानकि जीवन रामा॥
प्रेम मगन अस राज समाजू।
जनु फिरि अवध चले रघुराजू॥
सब लोग उस पर्वतको देखकर 'जानकी-जीवन श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो।' ऐसा कहकर दण्डवत् प्रणाम करते हैं। राजसमाज प्रेममें ऐसा मग्न है मानो श्रीरघुनाथजी अयोध्याको लौट चले हों ॥४॥
भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥२२५।।
कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु॥२२५।।
भरतजीका उस समय जैसा प्रेम था, वैसा शेषजी भी नहीं कह सकते। कविके लिये तो वह वैसा ही अगम है जैसा अहंता और ममतासे मलिन मनुष्योंके लिये ब्रह्मानन्द!॥ २२५॥
सकल सनेह सिथिल रघुबर के।
गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें।
कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥
गए कोस दुइ दिनकर ढरकें॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें।
कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें॥
सब लोग श्रीरामचन्द्रजीके प्रेमके मारे शिथिल होनेके कारण सूर्यास्त होनेतक (दिनभरमें) दो ही कोस चल पाये और जल-स्थलका सुपास देखकर रातको वहीं [बिना खाये-पीये ही] रह गये। रात बीतनेपर श्रीरघुनाथजीके प्रेमी भरतजीने आगे गमन किया।।१॥
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