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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

श्रीराम का शृंगवेरपुर पहुँचना, निषाद के द्वारा सेवा



दो०- राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि।
मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥८६॥


 [सब] स्त्री-पुरुष श्रीरामचन्द्रजी के दर्शनके लिये नियम और व्रत करने लगे और ऐसे दुःखी हो गये जैसे चकवा, चकवी और कमल सूर्यके बिना दीन हो जाते हैं।। ८६॥
 
सीता सचिव सहित दोउ भाई।
संगबेरपुर पहुँचे जाई॥
उतरे राम देवसरि देखी।
कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥

 
सीताजी और मन्त्रीसहित दोनों भाई शृंगवेरपुर जा पहुंचे। वहाँ गङ्गाजीको देखकर श्रीरामजी रथ से उतर पड़े और बड़े हर्षके साथ उन्होंने दण्डवत् की॥१॥

लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा।
सबहि सहित सुखु पायउ रामा।
गंग सकल मुद मंगल मूला।
सब सुख करनि हरनि सब सूला॥


लक्ष्मणजी, सुमन्त्र और सीताजी ने भी प्रणाम किया। सबके साथ श्रीरामचन्द्रजी ने सुख पाया। गङ्गाजी समस्त आनन्द-मङ्गलों की मूल हैं। वे सब सुखों की करनेवाली और सब पीड़ाओं की हरने वाली हैं॥२॥

कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा।
रामु बिलोकहिं गंग तरंगा।
सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई।
विबुध नदी महिमा अधिकाई॥

अनेक कथा-प्रसङ्ग कहते हुए श्रीरामजी गङ्गाजी की तरङ्गों को देख रहे हैं। उन्होंने मन्त्री को, छोटे भाई लक्ष्मणजी को और प्रिया सीताजी को देवनदी गङ्गाजी की बड़ी महिमा सुनायी॥३॥

मजनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ।
सुचि जलु फिअत मुदित मन भयऊ॥
सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू।
तेहि श्रम यह लौकिक व्यवहारू॥

इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे मार्ग का सारा श्रम (थकावट) दूर हो गया और पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया। जिनके स्मरणमात्र से [बार-बार जन्मने और मरने का] महान् श्रम मिट जाता है, उनको श्रम' होना–यह केवल लौकिक व्यवहार (नरलीला) है॥४॥

दो०- सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।
चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥८७॥

शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मङ्गलविग्रह) सच्चिदानन्द कन्दस्वरूप सूर्यकुलके ध्वजारूप भगवान् श्रीरामचन्द्रजी मनुष्यों के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं जो संसाररूपी समुद्र के पार उतरने के लिये पुलके समान हैं॥ ८७॥

यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई।
मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥
लिए फल मूल भेंट भरि भारा।
मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥


जब निषादराज गुह ने यह खबर पायी, तब आनन्दित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बन्धुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिये फल, मूल (कन्द) लेकर और उन्हें भारों (बहँगियों) में भरकर मिलने के लिये चला। उसके हृदयमें हर्ष का पार नहीं था॥१॥

करि दंडवत भेंट धरि आगें।
प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें।
सहज सनेह बिबस रघुराई।
पूँछी कुसल निकट बैठाई॥


दण्डवत् करके भेंट सामने रखकर वह अत्यन्त प्रेमसे प्रभुको देखने लगा। श्रीरघुनाथजीने स्वाभाविक स्नेहके वश होकर उसे अपने पास बैठाकर कुशल पूछी॥ २॥

नाथ कुसल पद पंकज देखें।
भयउँ भागभाजन जन लेखें॥
देव धरनि धनु धामु तुम्हारा।
मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥


निषादराज ने उत्तर दिया-हे नाथ! आपके चरणकमल के दर्शन से ही कुशल है [आपके चरणारविन्दों के दर्शनकर] आज मैं भाग्यवान् पुरुषों की गिनती में आ गया। हे देव! यह पृथ्वी,धन और घर सब आपका है। मैं तो परिवारसहित आपका नीच सेवक हूँ॥३॥

कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ।
थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ॥
कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना।
मोहि दीन्ह पितु आयसु आना।

अब कृपा करके पुर (श्रृंगवेरपुर) में पधारिये और इस दासकी प्रतिष्ठा बढ़ाइये, जिससे सब लोग मेरे भाग्यकी बड़ाई करें। श्रीरामचन्द्रजीने कहा-हे सुजान सखा ! तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है। परन्तु पिताजीने मुझको और ही आज्ञा दी है।॥४॥

दो०- बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।
ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥८८॥


[उनके आज्ञानुसार] मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारणकर और मुनियोंके योग्य आहार करते हुए वनमें ही बसना है, गाँव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। यह सुनकर गुहको बड़ा दुःख हुआ॥८८॥

राम लखन सिय रूप निहारी।
कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥
ते पितु मातु कहहु सखि कैसे।
जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥


श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजीके रूपको देखकर गाँवके स्त्री-पुरुष प्रेमके साथ चर्चा करते हैं। [कोई कहती है-] हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे [सुन्दर सुकुमार] बालकोंको वनमें भेज दिया है!॥ १॥

एक कहहिं भल भूपति कीन्हा।
लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥
तब निषादपति उर अनुमाना।
तरु सिंसुपा मनोहर जाना।


कोई एक कहते हैं-राजाने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्मा ने नेत्रों का लाभ दिया। तब निषादराज ने हृदय में अनुमान किया, तो अशोक के पेड़ को [उनके ठहरने के लिये] मनोहर समझा॥२॥

लै रघुनाथहि ठाउँ देखावा।
कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥
पुरजन करि जोहारु घर आए।
रघुबर संध्या करन सिधाए॥


उसने श्रीरघुनाथजी को ले जाकर वह स्थान दिखाया। श्रीरामचन्द्रजी ने [देखकर] कहा कि यह सब प्रकार से सुन्दर है। पुरवासी लोग जोहार (वन्दना) करके अपने अपने घर लौटे और श्रीरामचन्द्रजी सन्ध्या करने पधारे॥३॥

गुहँ सँवारि साँथरी डसाई।
कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥
सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी।
दोना भरि भरि राखेसि पानी॥

गुहने [इसी बीच] कुश और कोमल पत्तोंकी कोमल और सुन्दर साथरी सजाकर बिछा दी; और पवित्र, मीठे और कोमल देख-देखकर दोनों में भर-भरकर फल-मूल और पानी रख दिया [अथवा अपने हाथसे फल-मूल दोनों में भर-भरकर रख दिये]॥४॥

दो०- सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥८९॥


सीताजी, सुमन्त्रजी और भाई लक्ष्मणजी सहित कन्द-मूल-फल खाकर रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी लेट गये। भाई लक्ष्मणजी उनके पैर दबाने लगे। ८९॥

उठे लखनु प्रभु सोवत जानी।
कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥
कछुक दूरि सजि बान सरासन।
जागन लगे बैठि बीरासन॥


फिर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमल वाणीसे मन्त्री सुमन्त्रजीको सोनेके लिये कहकर वहाँ से कुछ दूरपर धनुष-बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने (पहरा देने) लगे॥१॥

गुहँ बोलाइ पाहरू प्रतीती।
ठावं ठाव राखे अति प्रीती॥
आपु लखन पहिं बैठेउ जाई।
कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥


गुहने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर अत्यन्त प्रेमसे जगह-जगह नियुक्त कर दिया। और आप कमर में तरकस बाँधकर तथा धनुषपर बाण चढ़ाकर लक्ष्मणजी के पास जा बैठा॥२॥

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