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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।

्श्रीलक्ष्मण-सुमित्रा-संवाद



मागहु बिदा मातु सन जाई।
आवहु बेगि चलहु बन भाई॥
मुदित भए सुनि रघुबर बानी।
भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥


[और कहा-] हे भाई! जाकर मातासे विदा माँग आओ और जल्दी वनको चलो! रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आनन्दित हो गये। बड़ी हानि दूर हो गयी और बड़ा लाभ हुआ!॥१॥

हरषित हृदयँ मातु पहिं आए।
मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए॥ जाइ जननि पग नायउ माथा।
मनु रघुनंदन जानकि साथा॥


वे हर्षित हृदयसे माता सुमित्राजीके पास आये, मानो अंधा फिरसे नेत्र पा गया हो। उन्होंने जाकर माताके चरणोंमें मस्तक नवाया। किन्तु उनका मन रघुकुलको आनन्द देनेवाले श्रीरामजी और जानकीजीके साथ था॥२॥

पूँछे मातु मलिन मन देखी।
लखन कही सब कथा बिसेषी॥
गई सहमि सुनि बचन कठोरा।
मृगी देखि दव जनु चहु ओरा॥


माताने उदास मन देखकर उनसे [कारण] पूछा। लक्ष्मणजीने सब कथा विस्तारसे कह सुनायी। सुमित्राजी कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गयीं जैसे हिरनी चारों ओर वनमें आग लगी देखकर सहम जाती है॥३॥

लखन लखेउ भा अनरथ आजू।
एहिं सनेह बस करब अकाजू॥
मागत बिदा सभय सकुचाहीं।
जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥


लक्ष्मणने देखा कि आज (अब) अनर्थ हुआ। ये स्नेहवश काम बिगाड़ देंगी! इसलिये वे विदा माँगते हुए डरके मारे सकुचाते हैं [और मन-ही-मन सोचते हैं] कि हे विधाता! माता साथ जानेको कहेंगी या नहीं॥४॥

दो०- समुझि सुमित्राँ राम सिय रूपु सुसीलु सुभाउ।
नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥७३॥


सुमित्राजी ने श्रीरामजी और श्रीसीताजी के रूप, सुन्दर शील और स्वभाव को समझकर और उनपर राजाका प्रेम देखकर अपना सिर धुना (पीटा) और कहा कि पापिनी कैकेयी ने बुरी तरह घात लगाया॥७३॥

धीरजु धरेउ कुअवसर जानी।
सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥
तात तुम्हारि मातु बैदेही।
पिता रामु सब भाँति सनेही॥


परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहनेवाली सुमित्राजी कोमल वाणीसे बोली-हे तात ! जानकीजी तुम्हारी माता हैं और सब प्रकारसे स्नेह करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी तुम्हारे पिता हैं!॥१॥

अवध तहाँ जहँ राम निवासू।
तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥
जौं पै सीय रामु बन जाहीं।
अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥


जहाँ श्रीरामजीका निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्यका प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता-राम वनको जाते हैं तो अयोध्यामें तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है॥२॥

गुर पितु मातु बंधु सुर साईं।
सेइअहिं सकल प्रान की नाईं।
रामु प्रानप्रिय जीवन जी के।
स्वारथ रहित सखा सबही के॥


गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी, इन सबकी सेवा प्राणके समान करनी चाहिये। फिर श्रीरामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थ रहित सखा हैं॥३॥

पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें।
सब मानिअहिं राम के नातें।
अस जियँ जानि संग बन जाहू।
लेहु तात जग जीवन लाहू॥


जगत् में जहाँ तक पूजनीय और परम प्रिय लोग हैं, वे सब रामजी के नाते से ही [पूजनीय और परम प्रिय] मानने योग्य हैं। हृदयमें ऐसा जानकर, हे तात! उनके साथ वन जाओ और जगत् में जीने का लाभ उठाओ!॥४॥

दो०- भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।
जौं तुम्हरें मन छाडि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥७४॥


मैं बलिहारी जाती हूँ, [हे पुत्र!] मेरे समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने छल छोड़कर श्रीरामजी के चरणों में स्थान प्राप्त किया है॥७४॥

पुत्रवती जुबती जग सोई।
रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी।
राम बिमुख सुत तें हित जानी।


संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है जिसका पुत्र श्रीरघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बाँझ ही अच्छी। पशु की भाँति उसका ब्याना (पुत्र प्रसव करना) व्यर्थ ही है॥१॥

तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं।
दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥
सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू।
राम सीय पद सहज सनेहू॥


तुम्हारे ही भाग्यसे श्रीरामजी वनको जा रहे हैं। हे तात! दूसरा कोई कारण नहीं है। सम्पूर्ण पुण्योंका सबसे बड़ा फल यही है कि श्रीसीतारामजीके चरणोंमें स्वाभाविक प्रेम हो॥२॥

रागु रोषु इरिषा मदु मोहू।
जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥
सकल प्रकार बिकार बिहाई।
मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥


राग, रोष, ईर्ष्या, मद और मोह– इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्मसे श्रीसीतारामजी की सेवा करना॥३॥

तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू।
सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥
जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू।
सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥

तुमको वनमें सब प्रकारसे आराम है, जिसके साथ श्रीरामजी और सीताजीरूप पिता-माता हैं। हे पुत्र! तुम वही करना जिससे श्रीरामचन्द्रजी वनमें क्लेश न पावें, मेरा यही उपदेश है॥४॥

छं०- उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।
पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥
तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।
रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई॥


हे तात! मेरा यही उपदेश है (अर्थात् तुम वही करना) जिससे वन में तुम्हारे कारण श्रीरामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगरके सुखों की याद भूल जायँ। तुलसीदासजी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु (श्रीलक्ष्मणजी) को शिक्षा देकर [वन जानेकी] आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्रीसीताजी और श्रीरघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!
 
सो०- मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ।
बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥७५॥

माता के चरणों में सिर नवाकर हृदयमें डरते हुए [कि अब भी कोई विघ्न न आ जाय] लक्ष्मणजी तुरंत इस तरह चल दिये जैसे सौभाग्यवश कोई हिरन कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला हो॥७५॥

गए लखनु जहँ जानकिनाथू।
भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥
बंदि राम सिय चरन सुहाए।
चले संग नृपमंदिर आए॥

लक्ष्मणजी वहाँ गये जहाँ श्रीजानकीनाथजी थे, और प्रियका साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए। श्रीरामजी और सीताजी के सुन्दर चरणों की वन्दना करके वे उनके साथ चले और राजभवन में आये॥१॥

कहहिं परसपर पुर नर नारी।
भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥
तन कृस मन दुखु बदन मलीने।
बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥

नगरके स्त्री-पुरुष आपसमें कह रहे हैं कि विधाताने खूब बनाकर बात बिगाड़ी! उनके शरीर दुबले, मन दु:खी और मुख उदास हो रहे हैं। वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे शहद छीन लिये जानेपर शहदकी मक्खियाँ व्याकुल हों॥२॥

कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं।
जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥
भइ बड़ि भीर भूप दरबारा।
बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥


सब हाथ मल रहे हैं और सिर धुनकर (पीटकर) पछता रहे हैं। मानो बिना पंखके पक्षी व्याकुल हो रहे हों। राजद्वार पर बड़ी भीड़ हो रही है। अपार विषाद का वर्णन नहीं किया जा सकता॥३॥

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