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श्रीरामचरितमानस (अयोध्याकाण्ड)

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वैसे तो रामचरितमानस की कथा में तत्त्वज्ञान यत्र-तत्र-सर्वत्र फैला हुआ है परन्तु उत्तरकाण्ड में तो तुलसी के ज्ञान की छटा ही अद्भुत है। बड़े ही सरल और नम्र विधि से तुलसीदास साधकों को प्रभुज्ञान का अमृत पिलाते हैं।


दो०- श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि॥

श्रीगुरुजीके चरणकमलोंकी रजसे अपने मनरूपी दर्पणको साफ करके मैं श्रीरघुनाथजीके उस निर्मल यशका वर्णन करता हूँ, जो चारों फलोंको (धर्म, अर्थ, काम, मोक्षको) देनेवाला है।

जब तें रामु ब्याहि घर आए।
नित नव मंगल मोद बधाए॥
भुवन चारिदस भूधर भारी।
सुकृत मेघ बरषहिं सुख बारी॥

जबसे श्रीरामचन्द्रजी विवाह करके घर आये, तबसे [अयोध्या में] नित्य नये मङ्गल हो रहे हैं और आनन्दके बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोकरूपी बड़े भारी पर्वतोंपर पुण्यरूपी मेघ सुखरूपी जल बरसा रहे हैं॥१॥

रिधि सिधि संपति नदी सुहाई।
उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई॥
मनिगन पुर नर नारि सुजाती।
सुचि अमोल सुंदर सब भाँती॥

 
ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्तिरूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर अयोध्यारूपी समुद्र में आ मिली। नगरके स्त्री-पुरुष अच्छी जातिके मणियोंके समूह हैं, जो सब प्रकारसे पवित्र, अमूल्य और सुन्दर हैं॥ २॥

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती।
जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।
सब बिधि सब पुर लोग सुखारी।
रामचंद मुख चंदु निहारी॥


नगरका ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजीकी कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगरनिवासी श्रीरामचन्द्रजीके मुखचन्द्रको देखकर सब प्रकारसे सुखी हैं॥३॥

मुदित मातु सब सखी सहेली।
फलित बिलोकि मनोरथ बेली॥
राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ।
प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ॥


सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथरूपी बेलको फली हुई देखकर आनन्दित हैं। श्रीरामचन्द्रजीके रूप, गुण, शील और स्वभावको देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनन्दित होते हैं।।४।।

दो०- सब के उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु।
आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु॥१॥


सबके हृदयमें ऐसी अभिलाषा है और सब महादेवजीको मनाकर (प्रार्थना करके) कहते हैं कि राजा अपने जीते-जी श्रीरामचन्द्रजीको युवराजपद दे दें॥१॥

एक समय सब सहित समाजा।
राजसभाँ रघुराजु बिराजा॥
सकल सुकृत मूरति नरनाहू।
राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू॥


एक समय रघुकुलके राजा दशरथजी अपने सारे समाजसहित राजसभामें विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्योंकी मूर्ति हैं , उन्हें श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर यश सुनकर अत्यन्त आनन्द हो रहा है॥ १॥

नृप सब रहहिं कृपा अभिलायें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।
तिभुवन तीनि काल जग माहीं।
भूरिभाग दसरथ सम नाहीं॥


सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुखको रखते हुए (अनुकूल होकर) प्रीति करते हैं। [पृथ्वी, आकाश, पाताल] तीनों भुवनों में और [भूत, भविष्य, वर्तमान] तीनों कालों में दशरथजीके समान बड़भागी [और] कोई नहीं है॥२॥

मंगलमूल रामु सुत जासू।
जो कछु कहिअ थोर सबु तासू॥
रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा।
बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा॥


मङ्गलों के मूल श्रीरामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैं, उनके लिये जो कुछ कहा जाय सब थोड़ा है। राजा ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुँह देखकर मुकुटको सीधा किया। ३।

श्रवन समीप भए सित केसा।
मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा॥
नृप जुबराजु राम कहुँ देहू।
जीवन जनम लाहु किन लेहू॥


[देखा कि] कानों के पास बाल सफेद हो गये हैं, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन्! श्रीरामचन्द्रजी को युवराज-पद देकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते॥ ४॥
 
दो०- यह बिचारु उर आनि नृप सुदिनु सुअवसरु पाइ।
प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ॥२॥

हृदय में यह विचार लाकर (युवराज-पद देनेका निश्चय कर) राजा दशरथजी ने शुभ दिन और सुन्दर समय पाकर, प्रेम से पुलकित शरीर हो आनन्दमग्न मन से उसे गुरु वसिष्ठजी को जा सुनाया॥२॥

कहइ भुआलु सुनिअ मुनिनायक।
भए राम सब बिधि सब लायक॥
सेवक सचिव सकल पुरबासी।
जे हमारे अरि मित्र उदासी॥


राजाने कहा-हे मुनिराज! [कृपया यह निवेदन] सुनिये। श्रीरामचन्द्र अब सब प्रकारसे सब योग्य हो गये हैं। सेवक, मन्त्री, सब नगरनिवासी और जो हमारे शत्रु, मित्र या उदासीन हैं--॥१॥

सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही।
प्रभु असीस जनु तनु धरि सोही॥
बिप्र सहित परिवार गोसाईं।
करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं॥


सभी को श्रीरामचन्द्र वैसे ही प्रिय हैं जैसे वे मुझको हैं। [उनके रूपमें] आपका आशीर्वाद ही मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे स्वामी! सारे ब्राह्मण, परिवार सहित आपके ही समान उन पर स्नेह करते हैं॥२॥

जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं।
ते जनु सकल बिभव बस करहीं।
मोहि सम यहु अनुभयउ न दूजें।
सबु पायउँ रज पावनि पूजें॥


जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वशमें कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण-रज की पूजा करके मैंने सब कुछ पा लिया॥३॥

अब अभिलाषु एकु मन मोरें।
पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें।
मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू।
कहेउ नरेस रजायसु देहू॥


अब मेरे मनमें एक ही अभिलाषा है। हे नाथ! वह भी आपही के अनुग्रह से पूरी होगी। राजा का सहज प्रेम देखकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा-नरेश! आज्ञा दीजिये (कहिये, क्या अभिलाषा है ?)॥४॥

दो०- राजन राउर नामु जसु सब अभिमत दातार।
फल अनुगामी महिप मनि मन अभिलाषु तुम्हार॥३॥


हे राजन्! आपका नाम और यश ही सम्पूर्ण मनचाही वस्तुओं को देनेवाला है। हे राजाओं के मुकुटमणि! आपके मन की अभिलाषा फल का अनुगमन करती है (अर्थात् आपके इच्छा करनेके पहले ही फल उत्पन्न हो जाता है)॥३॥

सब बिधि गुरु प्रसन्न जियें जानी।
बोलेउ राउ रहँसि मृदु बानी॥
नाथ रामु करिअहिं जुबराजू।
कहिअ कृपा करि करिअ समाजू॥


अपने जी में गुरुजी को सब प्रकार से प्रसन्न जानकर, हर्षित होकर राजा कोमल वाणी से बोले-हे नाथ! श्रीरामचन्द्र को युवराज कीजिये। कृपा करके कहिये (आज्ञा दीजिये) तो तैयारी की जाय॥१॥

मोहि अछत यहु होइ उछाहू।
लहहिं लोग सब लोचन लाहू॥
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं।
यह लालसा एक मन माहीं॥


मेरे जीते-जी यह आनन्द-उत्सव हो जाय, [जिससे] सब लोग अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करें। प्रभु (आप) के प्रसाद से शिवजी ने सब कुछ निबाह दिया (सब इच्छाएँ पूर्ण कर दी), केवल यही एक लालसा मन में रह गयी है।॥ २॥

पुनि न सोच तनु रहउ कि जाऊ।
जेहिं न होइ पाछे पछिताऊ।
सुनि मुनि दसरथ बचन सुहाए।
मंगल मोद मूल मन भाए॥


[इस लालसा के पूर्ण हो जानेपर] फिर सोच नहीं, शरीर रहे या चला जाय, जिससे मुझे पीछे पछतावा न हो। दशरथजी के मङ्गल और आनन्द के मूल सुन्दर वचन सुनकर मुनि मनमें बहुत प्रसन्न हुए॥३॥

सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं।
जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं॥
भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी।
रामु पुनीत प्रेम अनुगामी॥


[वसिष्ठजीने कहा-] हे राजन्! सुनिये, जिनसे विमुख होकर लोग पछताते हैं और जिनके भजन बिना जी की जलन नहीं जाती, वही स्वामी (सर्वलोकमहेश्वर) श्रीरामजी आपके पुत्र हुए हैं, जो पवित्र प्रेम के अनुगामी हैं। [श्रीरामजी पवित्र प्रेम के पीछे-पीछे चलने वाले हैं, इसी से तो प्रेमवश आपके पुत्र हुए हैं]॥ ४॥

दो०- बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिअ सबुइ समाजु।
सुदिन सुमंगलु तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु॥४॥

हे राजन्! अब देर न कीजिये; शीघ्र सब सामान सजाइये। शुभ दिन और सुन्दर मङ्गल तभी है जब श्रीरामचन्द्रजी युवराज हो जायँ (अर्थात् उनके अभिषेक के लिये सभी दिन शुभ और मङ्गलमय हैं)॥४॥

मुदित महीपति मंदिर आए।
सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए।
कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए।
भूप सुमंगल बचन सुनाए।


राजा आनन्दित होकर महल में आये और उन्होंने सेवकों को तथा मन्त्री सुमन्त्र को बुलवाया। उन लोगों ने 'जय-जीव' कहकर सिर नवाये। तब राजा ने सुन्दर मङ्गलमय वचन (श्रीरामजी को युवराज-पद देने का प्रस्ताव) सुनाये॥१॥

जौं पाँचहि मत लागै नीका।
करहु हरषि हियँ रामहि टीका॥


[और कहा-] यदि पंचों को (आप सबको) यह मत अच्छा लगे, तो हृदय में हर्षित होकर आप लोग श्रीरामचन्द्र का राजतिलक कीजिये॥२॥

मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी।
अभिमत बिरवें परेउ जनु पानी॥
बिनती सचिव करहिं कर जोरी।
जिअहु जगतपति बरिस करोरी॥


इस प्रिय वाणीको सुनते ही मन्त्री ऐसे आनन्दित हुए मानो उनके मनोरथ रूपी पौधे पर पानी पड़ गया हो। मन्त्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत् पति! आप करोड़ों वर्ष जियें॥३॥

जग मंगल भल काजु बिचारा।
बेगिअ नाथ न लाइअ बारा॥
नृपहि मोदु सुनि सचिव सुभाषा।
बढ़त बौंड जनु लही सुसाखा॥


आपने जगत् भर का मङ्गल करनेवाला भला काम सोचा है। हे नाथ! शीघ्रता कीजिये, देर न लगाइये। मन्त्रियों की सुन्दर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनन्द हुआ मानो बढ़ती हुई बेल सुन्दर डाली का सहारा पा गयी हो॥४॥

दो०- कहेउ भूप मुनिराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।
राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ॥५॥

राजा ने कहा-श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक के लिये मुनिराज वसिष्ठजी की जो-जो आज्ञा हो, आप लोग वही सब तुरंत करें॥५॥

हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी।
आनहु सकल सुतीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना।
कहे नाम गनि मंगल नाना॥


मुनिराज ने हर्षित होकर कोमल वाणी से कहा कि सम्पूर्ण श्रेष्ठ तीर्थों का जल ले आओ। फिर उन्होंने ओषधि, मूल, फूल, फल और पत्र आदि अनेकों माङ्गलिक वस्तुओं के नाम गिनकर बताये॥१॥

चामर चरम बसन बहु भाँती।
रोम पाट पट अगनित जाती॥
मनिगन मंगल बस्तु अनेका।
जो जग जोगु भूप अभिषेका॥


चँवर, मृगचर्म, बहुत प्रकार के वस्त्र, असंख्यों जातियों के ऊनी और रेशमी कपड़े, [नाना प्रकारकी] मणियाँ (रत्न) तथा और भी बहुत-सी मङ्गल वस्तुएँ, जो जगत् में राज्याभिषेक के योग्य होती हैं [सबको मँगाने की उन्होंने आज्ञा दी]॥ २॥

बेद बिदित कहि सकल बिधाना।
कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा।
रोपहु बीथिन्ह पुर चहुँ फेरा॥

मुनि ने वेदों में कहा हुआ सब विधान बताकर कहा-नगर में बहुत-से मण्डप (चँदोवे) सजाओ। फलों समेत आम, सुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारों ओर रोप दो॥३॥

रचहु मंजु मनि चौकें चारू।
कहहु बनावन बेगि बजारू॥
पूजहु गनपति गुर कुलदेवा।
सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।


सुन्दर मणियों के मनोहर चौक पुरवाओ और बाजार को तुरंत सजाने के लिये कह दो। श्रीगणेशजी, गुरु और कुलदेवता की पूजा करो और भूदेव ब्राह्मणों की सब प्रकारसे सेवा करो॥४॥
 
दो०- ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग।
सिर धरि मुनिबर बचन सबु निज निज काजहिं लाग॥६॥

ध्वजा, पताका, तोरण, कलश, घोड़े, रथ और हाथी सबको सजाओ। मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी के वचनों को शिरोधार्य करके सब लोग अपने-अपने काम में लग गये॥६॥

जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा।
सो तेहिं काजु प्रथम जनु कीन्हा॥
बिप्र साधु सुर पूजत राजा।
करत राम हित मंगल काजा॥


मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिये आज्ञा दी, उसने वह काम [इतनी शीघ्रता से कर डाला कि] मानो पहले से ही कर रखा था। राजा ब्राह्मण, साधु और देवताओंको पूज रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजीके लिये सब मङ्गलकार्य कर रहे हैं॥१॥

सुनत राम अभिषेक सुहावा।
बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगुन जनाए।
फरकहिं मंगल अंग सुहाए।


श्रीरामचन्द्रजी के राज्याभिषेक की सुहावनी खबर सुनते ही अवध भर में बड़ी धूम से बधावे बजने लगे। श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के शरीर में भी शुभ शकुन सूचित हुए। उनके सुन्दर मङ्गल अङ्ग फड़कने लगे॥२॥

पुलकि सप्रेम परसपर कहहीं।
भरत आगमनु सूचक अहहीं।
भए बहुत दिन अति अवसेरी।
सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी॥


पुलकित होकर वे दोनों प्रेमसहित एक-दूसरे से कहते हैं कि ये सब शकुन भरत के आने की सूचना देनेवाले हैं। [उनको मामा के घर गये] बहुत दिन हो गये; बहुत ही अवसेर आ रही है (बार-बार उनसे मिलने की मन में आती है) शकुनोंसे प्रिय (भरत)-के मिलने का विश्वास होता है॥३॥

भरत सरिस प्रिय को जग माहीं।
इहइ सगुन फलु दूसर नाहीं॥
रामहि बंधु सोच दिन राती।
अंडन्हि कमठ हृदउ जेहि भाँती॥


और भरतके समान जगत् में [हमें] कौन प्यारा है! शकुन का बस, यही फल है, दूसरा नहीं। श्रीरामचन्द्रजीको [अपने] भाई भरत का दिन-रात ऐसा सोच रहता है जैसा कछुए का हृदय अंडों में रहता है॥ ४॥

दो०- एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहँसेउ रनिवासु।
सोभत लखि बिधु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु॥७॥

इसी समय यह परम मङ्गल समाचार सुनकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। जैसे चन्द्रमाको बढ़ते देखकर समुद्र में लहरों का विलास (आनन्द) सुशोभित होता है॥७॥

प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए।
भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।
प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं।
मंगल कलस सजन सब लागी॥


सबसे पहले [रनिवासमें] जाकर जिन्होंने ये वचन (समाचार) सुनाये, उन्होंने बहुत-से आभूषण और वस्त्र पाये। रानियों का शरीर प्रेम से पुलकित हो उठा और मन प्रेम में मग्न हो गया। वे सब मङ्गलकलश सजाने लगीं॥१॥

चौकें चारु सुमित्राँ पूरी।
मनिमय बिबिध भाँति अति रूरी॥
आनंद मगन राम महतारी।
दिए दान बहु बिन हकारी॥


सुमित्राजीने मणियों (रत्नों)-के बहुत प्रकारके अत्यन्त सुन्दर और मनोहर चौक पूरे। आनन्द में मग्न हुई श्रीरामचन्द्रजी की माता कौसल्याजी ने ब्राह्मणोंको बुलाकर बहुत दान दिये॥२॥

पूजी ग्रामदेबि सुर नागा।
कहेउ बहोरि देन बलिभागा॥
जेहि बिधि होइ राम कल्यानू।
देहु दया करि सो बरदानू॥


उन्होंने ग्रामदेवियों, देवताओं और नागों की पूजा की और फिर बलि भेंट देने को कहा (अर्थात् कार्य सिद्ध होने पर फिर पूजा करने की मनौती मानी); और प्रार्थना की कि जिस प्रकारसे श्रीरामचन्द्रजी का कल्याण हो, दया करके वही वरदान दीजिये॥३॥

गावहिं मंगल कोकिलबयनीं।
बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं॥

कोयलकी-सी मीठी वाणीवाली, चन्द्रमाके समान मुखवाली और हिरनके बच्चेके से नेत्रोंवाली स्त्रियाँ मङ्गलगान करने लगीं॥४॥

दो०- राम राज अभिषेकु सुनि हियँ हरषे नर नारि।
लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि॥८॥


श्रीरामचन्द्रजी का राज्याभिषेक सुनकर सभी स्त्री-पुरुष हृदय में हर्षित हो उठे और विधाता को अपने अनुकूल समझकर सब सुन्दर मङ्गल-साज सजाने लगे॥८॥

तब नरनाहँ बसिष्ठु बोलाए।
रामधाम सिख देन पठाए।
गुर आगमनु सुनत रघुनाथा।
द्वार आइ पद नायउ माथा॥


तब राजा ने वसिष्ठजी को बुलाया और शिक्षा (समयोचित उपदेश) देने के लिये श्रीरामचन्द्रजी के महल में भेजा। गुरु का आगमन सुनते ही श्रीरघुनाथजी ने दरवाजे पर आकर उनके चरणों में मस्तक नवाया॥१॥

सादर अरघ देइ घर आने।
सोरह भाँति पूजि सनमाने॥
गहे चरन सिय सहित बहोरी। ब
ोले रामु कमल कर जोरी॥


आदरपूर्वक अर्घ्य देकर उन्हें घरमें लाये और षोडशोपचारसे पूजा करके उनका सम्मान किया। फिर सीताजीसहित उनके चरण स्पर्श किये और कमलके समान दोनों हाथोंको जोड़कर श्रीरामजी बोले-॥२॥

सेवक सदन स्वामि आगमनू।
मंगल मूल अमंगल दमनू॥
तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती।
पठइअ काज नाथ असि नीती।


यद्यपि सेवकके घर स्वामीका पधारना मङ्गलोंका मूल और अमङ्गलोंका नाश करनेवाला होता है, तथापि हे नाथ! उचित तो यही था कि प्रेमपूर्वक दासको ही कार्यके लिये बुला भेजते; ऐसी ही नीति है।। ३॥

प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू।
भयउ पुनीत आजु यहु गेहू॥
आयसु होइ सो करौं गोसाईं।
सेवकु लहइ स्वामि सेवकाईं।


परन्तु प्रभु (आप)-ने प्रभुता छोड़कर (स्वयं यहाँ पधारकर) जो स्नेह किया, इससे आज यह घर पवित्र हो गया। हे गोसाईं ! [अब] जो आज्ञा हो, मैं वही करूँ। स्वामीकी सेवामें ही सेवकका लाभ है॥४॥

दो०- सुनि सनेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस।
राम कस न तुम्ह कहहु अस हंस बंस अवतंस॥९॥


[श्रीरामचन्द्रजीके] प्रेममें सने हुए वचनोंको सुनकर मुनि वसिष्ठजीने श्रीरघुनाथजीकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे राम! भला, आप ऐसा क्यों न कहें। आप सूर्यवंशके भूषण जो हैं॥९॥

बरनि राम गुन सीलु सुभाऊ।
बोले प्रेम पुलकि मुनिराऊ॥
भूप सजेउ अभिषेक समाजू।
चाहत देन तुम्हहि जुबराजू॥

श्रीरामचन्द्रजीके गुण, शील और स्वभावका बखान कर, मुनिराज प्रेमसे पुलकित होकर बोले-[हे रामचन्द्रजी!] राजा (दशरथजी)-ने राज्याभिषेककी तैयारी की है। वे आपको युवराज-पद देना चाहते हैं॥१॥

राम करहु सब संजम आजू।
जौं बिधि कुसल निबाहै काजू॥
गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ।
राम हृदय अस बिसमउ भयऊ॥


[इसलिये] हे रामजी! आज आप [उपवास, हवन आदि विधिपूर्वक] सब संयम कीजिये, जिससे विधाता कुशलपूर्वक इस कामको निबाह दें (सफल कर दें)। गुरुजी शिक्षा देकर राजा दशरथजीके पास चले गये। श्रीरामचन्द्रजीके हृदयमें [यह सुनकर] इस बातका खेद हुआ कि--॥२॥

जनमे एक संग सब भाई।
भोजन सयन केलि लरिकाई॥
करनबेध उपबीत बिआहा।
संग संग सब भए उछाहा।


हम सब भाई एक ही साथ जन्मे; खाना, सोना, लड़कपनके खेल-कूद, कनछेदन, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ-साथ ही हुए॥३॥

बिमल बंस यहु अनुचित एकू।
बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई।
हरउ भगत मन कै कुटिलाई॥


पर इस निर्मल वंशमें यही एक अनुचित बात हो रही है कि और सब भाइयोंको छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़ेका ही (मेरा ही) होता है। [तुलसीदासजी कहते हैं कि] प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका यह सुन्दर प्रेमपूर्ण पछतावा भक्तोंके मनकी कुटिलताको हरण करे॥४॥
 
दो०- तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद।
सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चंद॥१०॥


उसी समय प्रेम और आनन्दमें मग्न लक्ष्मणजी आये। रघुकुलरूपी कुमुदके खिलानेवाले चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजीने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया॥१०।।

बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना।
पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना॥
भरत आगमनु सकल मनावहिं।
आवहुँ बेगि नयन फलु पावहिं॥


बहुत प्रकारके बाजे बज रहे हैं। नगरके अतिशय आनन्दका वर्णन नहीं हो सकता। सब लोग भरतजीका आगमन मना रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भी शीघ्र आवें और [राज्याभिषेकका उत्सव देखकर] नेत्रोंका फल प्राप्त करें॥१॥

हाट बाट घर गली अथाईं।
कहहिं परसपर लोग लोगाईं।
कालि लगन भलि केतिक बारा।
पूजिहि बिधि अभिलाषु हमारा॥


बाजार, रास्ते, घर, गली और चबूतरोंपर (जहाँ-तहाँ) पुरुष और स्त्री आपसमें यही कहते हैं कि कल वह शुभ लग्न (मुहूर्त) कितने समय है जब विधाता हमारी अभिलाषा पूरी करेंगे॥२॥

कनक सिंघासन सीय समेता।
बैठहिं रामु होइ चित चेता॥
सकल कहहिं कब होइहि काली।
बिघन मनावहिं देव कुचाली॥

जब सीताजीसहित श्रीरामचन्द्रजी सुवर्णके सिंहासनपर विराजेंगे और हमारा मनचीता होगा (मन:कामना पूरी होगी)। इधर तो सब यह कह रहे हैं कि कल कब होगा, उधर कुचक्री देवता विघ्न मना रहे हैं॥ ३॥

तिन्हहि सोहाइ न अवध बधावा।
चोरहि चंदिनि राति न भावा॥
सारद बोलि बिनय सुर करहीं।
बारहिं बार पाय लै परहीं।


उन्हें (देवताओंको) अवध के बधावे नहीं सुहाते, जैसे चोर को चाँदनी रात नहीं भाती। सरस्वतीजी को बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार-बार उनके पैरों को पकड़कर उनपर गिरते हैं॥४॥

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