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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

श्रीसीताराम-धाम-परिकर-वन्दना



बंदउँ अवध पुरी अति पावनि।
सरजू सरि कलि कलुष नसावनि।
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी।
ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥

मैं अति पवित्र श्रीअयोध्यापुरी और कलियुगके पापोंका नाश करनेवाली श्रीसरयू नदीकी वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरोके उन नर-नारियोंको प्रणाम करता हूँ जिनपर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी ममता थोड़ी नहीं है (अर्थात् बहुत है)॥१॥

सिय निंदक अघ ओघ नसाए।
लोक बिसोक बनाइ बसाए।
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची।
कीरति जासु सकल जग माची॥

उन्होंने अपनी पुरीमें रहनेवाले सीताजीको निन्दा करनेवाले (धोबी और उसके समर्थक पुर--नर-नारियों) के पापसमूहको नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया। मैं कौसल्यारूपी पूर्व दिशाकी वन्दना करता हूँ, जिसको कीर्ति समस्त संसारमें फैल रही है ॥२॥

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू।
बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी।
सुकृत सुमंगल मूरति मानी।
करउँ प्रनाम करम मन बानी।
करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता।
महिमा अवधि राम पितु माता॥

जहाँ (कौसल्यारूपी पूर्व दिशा) से विश्वको सुख देनेवाले और दुष्टरूपी कमलोंके लिये पालेके समान श्रीरामचन्द्रजीरूपी सुन्दर चन्द्रमा प्रकट हुए। सब रानियोंसहित राजा दशरथजीको पुण्य और सुन्दर कल्याणकी मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्मसे प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्रका सेवक जानकर वे मुझपर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजीने भी बड़ाई पायी तथा जो श्रीरामजीके माता और पिता होनेके कारण महिमाकी सीमा हैं।। ३-४॥

सो०- बंदउँ अवध भआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥१६॥

मैं अवधके राजा श्रीदशरथजीकी वन्दना करता हूँ, जिनका श्रीरामजीके चरणोंमें सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभुके बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीरको मामूली तिनकेकी तरह त्याग दिया ॥ १६॥

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेह।
जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई।
राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥

मैं परिवारसहित राजा जनकजीको प्रणाम करता है, जिनका श्रीरामजीके चरणों में गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोगमें छिपा रखा था, परन्तु श्रीरामचन्द्रजीको देखते ही वह प्रकट हो गया।।१॥

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना।
जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू।
लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥

[भाइयोंमें] सबसे पहले मैं श्रीभरतजीके चरणोंको प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्रीरामजीके चरणकमलों में भौरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता ॥२॥

बंदउँ लछिमन पद जल जाता।
सीतल सुभग भगत सुख दाता।।
रघुपति कीरति बिमल पताका।
दंड समान भयउ जस जाका॥

मैं श्रीलक्ष्मणजी के चरणकमलोंको प्रणाम करता हूँ, जो शीतल, सुन्दर और भक्तोंको सुख देनेवाले हैं। श्रीरघुनाथजीकी कीर्तिरूपी विमल पताकामें जिनका (लक्ष्मणजीका) यश [पताकाको ऊँचा करके फहरानेवाले] दंडके समान हुआ॥ ३॥

सेष सहस्त्रसीस जग कारन।
जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर।
कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर।

जो हजार सिरवाले और जगतके कारण (हजार सिरोंपर जगतको धारण कर रखनेवाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वीका भय दूर करनेके लिये अवतार लिया, वे गुणोंकी खानि कृपासिन्धु सुमित्रानन्दन श्रीलक्ष्मणजी मुझपर सदा प्रसन्न रहें।। ४।।

रिपुसूदन पद कमल नमामी।
सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना।
राम जासु जस आप बखाना।

मैं श्रीशत्रुघ्नजीके चरणकमलोंको प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और श्रीभरतजीके पीछे चलनेवाले हैं। मैं महावीर श्रीहनुमानजीकी विनती करता हूँ, जिनके यशका श्रीरामचन्द्रजीने स्वयं (अपने श्रीमुखसे) वर्णन किया है।। ५ ॥
सो०-प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥ १७॥

मैं पवनकुमार श्रीहनुमानजीको प्रणाम करता हूँ, जो दुष्टरूपी वनको भस्म करनेक लिये अग्निरूप हैं, जो ज्ञानकी घनमूर्ति हैं और जिनके हृदयरूपी भवनमें धनुष-बाण धारण किये श्रीरामजी निवास करते हैं।। १७ ॥

कपिपति रीछ निसाचर राजा।
अंगदादि जे कीस समाजा।
बंदउँ सब के चरन सुहाए।
अधम सरीर राम जिन्ह पाए।

वानरोंके राजा सुग्रीवजी, रीछोंके राजा जाम्बवान्जी, राक्षसोंके राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरोंका समाज है, सबके सुन्दर चरणोंकी मैं वन्दना करता हूँ, जिन्होंने अधम (पशु और राक्षस आदि) शरीरमें भी श्रीरामचन्द्रजीको प्राप्त कर लिया॥१॥

रघुपति चरन उपासक जेते।
खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे।
जे बिनु काम राम के चेरे॥

पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुरसमेत जितने श्रीरामजीके चरणोंके उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो श्रीरामजीके निष्काम सेवक हैं।॥२॥

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥

शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरतीपर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ: हे मुनीश्वरो! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिये ॥३॥

जनकसुता जग जननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुनानिधान की।
ताके जुग पद कमल मनावउँ।
जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥

राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजीकी प्रियतमा श्रीजानकीजीके दोनों चरणकमलोंको मैं मनाता है, जिनकी कृपासे निर्मल बुद्धि पाऊँ॥४॥

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