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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

कवि-वन्दना



कबित रसिक न राम पद नेह।
तिन्ह कहं सुखद हास रस एह॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी।
हँसिबे जोग हंसें नहिं खोरी॥

जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है, उनके लिये भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है; इससे यह हंसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं ॥२॥

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी।
तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतरकी।
तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की।

जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्रीहरि (भगवान विष्णु) और श्रीहर (भगवान शिव) के चरणोंमें प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करनेवाली नहीं है [जो श्रीहरि-हरमें भेदकी या ऊँच-नीचकी कल्पना नहीं करते], उन्हें श्रीरघुनाथजी की यह कथा मीठी लगेगी॥३॥

राम भगति भूषित जिय जानी।
सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।।
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू।
सकल कला सब बिद्या हीनू।

सज्जनगण इस कथा को अपने जी में श्रीरामजीकी भक्तिसे भूषित जानकर सुन्दर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्यरचनामें ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओंसे रहित हूँ॥४॥

आखर अरथ अलंकृति नाना।
छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा।
कबित दोष गुन विविध प्रकारा॥

नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलङ्कार, अनेक प्रकार की छन्दरचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भांति-भांतिके गुण-दोष होते हैं॥५॥

कबित बिबेक एक नहिं मोरें।
सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें।।

इनमें से काव्यसम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझ में नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर [शपथपूर्वक] सत्य-सत्य कहता हूँ।।६।।

दो०- भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक।।।।

मेरी रचना सब गुणोंसे रहित है; इसमें बस, जगतप्रसिद्ध एक गुण है। उसे विारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे॥९॥

एहि मह रघुपति नाम उदारा।
अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी।
उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥

इसमें श्रीरघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमङ्गलों को हरनेवाला है, जिसे पार्वतीजीसहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं ॥१॥

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।
राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
बिधुबदनी सब भांति सवारी।
सोह न बसन बिना बर नारी॥

जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी रामनाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुखवाली सुन्दर स्त्री सब प्रकार से सुसजित होनेपर भी वस्त्रके बिना शोभा नहीं देती॥२॥

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी।
राम नाम जस अंकित जानी।
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही।
मधुकर सरिस संत गुनग्राही।

इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई सब गुणोंसे रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान् लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौरेकी भांति गुणहीको ग्रहण करनेवाले होते हैं॥३॥

जदपि कबित रस एकउ नाहीं।
राम प्रताप प्रगट एहि माहीं।
सोइ भरोस मोरें मन आवा।
केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा।।

यद्यपि मेरी इस रचनामें कविताका एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीरामजीका रामचरितमानस प्रताप प्रकट है। मेरे मनमें यही एक भरोसा है। भले संगसे भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?॥ ४॥

धूमउ तजइ सहज करुआई।
अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी।
राम कथा जग मंगल करनी॥

धुआँ भी अगर के संग से सुगन्धित होकर अपने स्वाभाविक कड़वेपन को छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगतका कल्याण करनेवाली रामकथारूपी उत्तम वस्तुका वर्णन किया गया है। [इससे यह भी अच्छी ही समझी जायगी]॥५॥

छं०- मंगल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की।
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सूजन मन भावनी।
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजी की कथा कल्याण करनेवाली और कलियुग के पापों को हरनेवाली है। मेरी इस भद्दी कवितारूपी नदी की चाल पवित्र जलवाली नदी (गङ्गाजी) की चालकी भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथजीके सुन्दर यशके संगसे यह कविता सुन्दर तथा सज्जनोंके मनको भानेवाली हो जायगी। श्मशानकी अपवित्र राख भी श्रीमहादेवजीके अंगके संगसे सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करनेवाली होती है।

दो०-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग।।१०(क)॥

श्रीरामजी के यश के संग से मेरी कविता सभीको अत्यन्त प्रिय लगेगी, जैसे मलय पर्वतके संगसे काष्ठमात्र [चन्दन बनकर] वन्दनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ [की तुच्छता] का विचार करता है?॥१०(क)॥

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।।१०(ख)॥

श्यामा गौ काली होनेपर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषामें होनेपर भी श्रीसीता-रामजीके यशको बुद्धिमान् लोग बड़े चावसे गाते और सुनते हैं।१०(ख)।


मनि मानिक मुकुता छबि जैसी।
अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई।
लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥

मणि, माणिक और मोतीकी जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथीके मस्तकपर वैसी शोभा नहीं पाती। राजाके मुकुट और नवयुवती स्त्रीके शरीरको पाकर ही ये सब अधिक शोभाको प्राप्त होते हैं ॥१॥

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं।
उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं।
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई।
सुमिरत सारद आवति धाई।

इसी तरह, बुद्धिमान् लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पातो है (अर्थात् कविकी वाणीसे उत्पन हुई कविता वहाँ शोभा पाती है जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्शका ग्रहण और अनुसरण होता है)। कविके स्मरण करते ही उसकी भक्तिके कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोकको छोड़कर दौड़ी आती हैं॥२॥

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ।
सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ।
कबि कोबिद अस हृदय बिचारी।
गावहिं हरि जस कलि मल हारी।

सरस्वतीजीको दौड़ी आनेकी वह थकावट रामचरितरूपी सरोवरमें उन्हें नहलाये बिना दूसरे करोड़ों उपायोंसे भी दूर नहीं होती। कवि और पण्डित अपने हृदयमें ऐसा विचारकर कलियुगके पापोंको हरनेवाले श्रीहरिके यशका ही गान करते हैं॥३॥

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना।
सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना।
स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥

संसारी मनुष्यों का गुणगान करनेसे सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं [कि मैं क्यों इसके बुलानेपर आयो]| बुद्धिमान् लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्रके समान कहते हैं॥४॥

जी बरषइ बर बारि बिचारू।
होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥

इसमें यदि श्रेष्ठ विचाररूपी जल बरसता है तो मुक्तामणिके समान सुन्दर कविता होती है॥५॥

दो०-- जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥११॥

उन कवितारूपी मुक्तामणियोंको युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्ररूपी सुन्दर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदयमें धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुरागरूपी शोभा होती है (वे आत्यन्तिक प्रेमको प्राप्त होते हैं)॥११।।

जे जनमे कलिकाल कराला।
करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद मग छौंड़े।
कपट कलेवर कलि मल भाँड़े।

जो कराल कलियुगमें जन्मे हैं, जिनकी करनी कौएके समान है और वेष हंसकासा है, जो वेदमार्गको छोड़कर कुमार्गपर चलते हैं, जो कपटकी मूर्ति और कलियुगके पापोंके भाँड़े हैं॥१॥

बंचक भगत कहाइ राम के।
किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी।
धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥

जो श्रीरामजीके भक्त कहलाकर लोगोंको ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करने वाले, धर्मध्वजी (धर्मकी झूठी ध्वजा फहरानेवाले-दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोनेवाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है॥२॥

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ।
बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ।
ताते मैं अति अलप बखाने।
थोरे महुँ जानिहहिं सयाने।

यदि मैं अपने सब अवगुणोंको कहने लगें तो कथा बहुत बढ़ जायगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैंने बहुत कम अवगुणोंका वर्णन किया है। बुद्धिमान् लोग थोड़े ही में समझ लेंगे॥३॥

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी।
कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका।
मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥

मेरी अनेकों प्रकारको विनतीको समझकर, कोई भी इस कथाको सुनकर दोष नहीं देगा। इतनेपर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धिके कंगाल हैं॥४॥

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥

मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ; अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीरामजीके गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्रीरघुनाथजीके अपार चरित्र, कहाँ संसारमें आसक्त मेरी बुद्धि !॥५॥

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं।
कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई।
करत कथा मन अति कदराई।

जिस हवासे सुमेरु-जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिये तो, उसके सामने रूई किस गिनतीमें है। श्रीरामजीकी असीम प्रभुताको समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है— ॥६॥

दो०- सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥१२॥

सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण-ये सब 'नेतिनेति' कहकर (पार नहीं पाकर ऐसा नहीं', 'ऐसा नहीं कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं ॥१२॥

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई।
तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा।
भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा।

यद्यपि प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुताको सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेदने ऐसा कारण बताया है कि भजनका प्रभाव बहुत तरहसे कहा गया है। (अर्थात् भगवानकी महिमाका पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता; परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवानका गुणगान करना चाहिये। क्योंकि भगवान के गुणगानरूपी भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकारसे शास्त्रोंमें वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवानका भजन मनुष्यको सहज ही भवसागरसे तार देता है)॥१॥

एक अनीह अरूप अनामा।
अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना।
तेहिं धरि देह चरित कृत नाना।।

जो परमेश्वर एक हैं, जिनके कोई इच्छा नहीं है. जिनका कोई रूप और नाम नहीं है. जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम हैं और जो सबमें व्यापक एवं विश्वरूप हैं. उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकारकी लीला की है॥२॥

सो केवल भगतन हित लागी।
परम कृपाल प्रनत अनुरागी।
जेहि जन पर ममता अति छोहू।
जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥

वह लीला केवल भक्तोंके हितके लिये ही है: क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागतके बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तोंपर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिसपर कृपा कर दी उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया॥३॥

गई बहोर गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी।
करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥

वे प्रभु श्रीरघुनाथजी गयी हुई वस्तुको फिर प्राप्त करानेवाले, गरीबनिवाज (दीनबन्धु), सरलस्वभाव. सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान् लोग उन श्रीहरिका यश वर्णन करके अपनी वाणीको पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देनेवाली बनाते हैं॥४॥

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा।
कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई।
तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई।

उसी बलसे (महिमाका यथार्थ वर्णन नहीं परन्तु महान् फल देनेवाला भजन समझकर भगवत्कृपाके बलपर ही) मैं श्रीरामचन्द्रजीके चरणों में सिर नवाकर श्रीरघुनाथजीके गुणोंकी कथा कहूँगा। इसी विचारसे [वाल्मीकि, व्यास आदि] मुनियोंने पहले हरिकी कीर्ति गायी है। भाई! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिये सुगम होगा।॥५॥

दो०- अति अपार जे सरित बर जौं नप सेतु कराहिं।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं ॥१३॥

जो अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उनपर पुल बँधा देता है तो अत्यन्त छोटी चींटियाँ भी उनपर चढ़कर बिना ही परिश्रमके पार चली जाती हैं [इसी प्रकार मुनियोंके वर्णनके सहारे मैं भी श्रीरामचरित्रका वर्णन सहज ही कर सकूँगा]॥१३॥

एहि प्रकार बल मनहि देखाई।
करिहउँ रघुपति कथा सुहाई।।
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना।
जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना।।

इस प्रकार मनको बल दिखलाकर मैं श्रीरघुनाथजीकी सुहावनी कथाकी रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिन्होंने बड़े आदरसे श्रीहरिका सुयश वर्णन किया है॥१॥

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे।
पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे।।
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा।
जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥

मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुगके भी उन कवियोंको मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीके गुणसमृहांका वर्णन किया है।।२॥

जे प्राकृत कबि परम सयाने।
भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने।
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें।
प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें।।

जो बड़े बुद्धिमान् प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषामें हरिचरित्रोंका वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं मारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥३॥

होह प्रसन्न देहु बरदानू।
साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं।
सो श्रम बादि बाल कबि करहीं।

आप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिये कि साधु-समाजमें मेरी कविताका सम्मान हो; क्योंकि बुद्धिमान् लोग जिस कविताका आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचनाका व्यर्थ परिश्रम करते हैं॥४॥

कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा।
असमंजस अस मोहि अंदेसा।।

कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है जो गङ्गाजीकी तरह सबका हित करनेवाली हो। श्रीरामचन्द्रजीकी कीर्ति तो बड़ी सुन्दर (सबका अनन्त कल्याण करनेवाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामञ्जस्य है (अर्थात् इन दोनोंका मेल नहीं मिलता), इसीकी मुझे चिन्ता है।।५॥

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे।
सिअनि सुहावनि टाट पटोरे।

परन्तु हे कवियो! आपकी कृपासे यह बात भी मेरे लिये सुलभ हो सकती है। रेशमकी सिलाई टाटपर भी सुहावनी लगती है॥६॥

दो०- सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥१४(क)।

चतुर पुरुष उसी कविताका आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्रका वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक वैरको भूलकर सराहना करने लगें॥१४(क)॥

सो न होइ बिन बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर ॥१४(ख)।

ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धिके होती नहीं और मेरे बुद्धिका बल बहुत ही थोड़ा है। इसलिये बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियो! आप कृपा करें, जिससे मैं हरियशका वर्णन कर सकूँ॥१४(ख)।।

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल ॥१४(ग)।

कवि और पण्डितगण! आप जो रामचरित्ररूपी मानसरोवर के सुन्दर हंस हैं. मुझ बालककी विनती सुनकर और सुन्दर रुचि देखकर मुझपर कृपा करें॥१४(ग)।

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