श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
जयमाल पहनाना
छबिगन मध्य महाछबि जैसें।
कर सरोज जयमाल सुहाई।
बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥
सखियोंके बीचमें सीताजी कैसी शोभित हो रही हैं; जैसे बहुत-सी छबियोंके बीचमें महाछबि हो। करकमलमें सुन्दर जयमाला है, जिसमें विश्वविजयकी शोभा छायी हुई है॥१॥
गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी ।
रहि जनु कुरि चित्र अवरेखी॥
सीताजीके शरीरमें संकोच है, पर मनमें परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसीको जान नहीं पड़ रहा है। समीप जाकर, श्रीरामजीकी शोभा देखकर राजकुमारी सीताजी चित्रमें लिखी-सी रह गयीं ॥२॥
पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई।
प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥
चतुर सखीने यह दशा देखकर समझाकर कहा-सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजीने दोनों हाथोंसे माला उठायी, पर प्रेमके विवश होनेसे पहनायी नहीं जाती॥३॥
ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली।
सियँ जयमाल राम उर मेली॥
[उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं] मानो डंडियोंसहित दो कमल चन्द्रमाको डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छबिको देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजीने श्रीरामजीके गले में जयमाला पहना दी ॥४॥
सो०- रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन ॥२६४॥
श्रीरघुनाथजीके हृदयपर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण इस प्रकार सकुचा गये मानो सूर्यको देखकर कुमुदोंका समूह सिकुड़ गया हो ॥ २६४॥
खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किंनर नर नाग मुनीसा ।
जय जय जय कहि देहिं असीसा॥
नगर और आकाशमें बाजे बजने लगे। दुष्टलोग उदास हो गये और सज्जनलोग सब प्रसन्न हो गये। देवता, किनर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं ॥१॥
बार बार कुसुमांजलि छूटी।
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं ।
बंदी बिरिदावलि उच्चरहीं।
देवताओंकी स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। बार-बार हाथोंसे पुष्पोंकी अञ्जलियाँ छूट रही हैं। जहाँ-तहाँ ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे हैं और भाटलोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे हैं ॥२॥
राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी ।
देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥
पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकोंमें यश फैल गया कि श्रीरामचन्द्रजीने धनुष तोड़ दिया और सीताजीको वरण कर लिया। नगरके नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी (हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्यसे बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं ॥३॥
छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं प्रभु पद गहु सीता ।
करति न चरन परस अति भीता।
श्रीसीता-रामजीकी जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुन्दरता और श्रृंगार रस एकत्र हो गये हों। सखियाँ कह रही हैं---सीते! स्वामीके चरण छुओ; किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूती ॥४॥
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥
गौतमजीकी स्त्री अहल्याकी गतिका स्मरण करके सीताजी श्रीरामजीके चरणोंको हाथोंसे स्पर्श नहीं कर रही हैं। सीताजीकी अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी मनमें हँसे॥२६५ ॥
कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे।
जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥
उस समय सीताजीको देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे। वे दुष्ट, कुपूत और मूढ़ राजा मनमें बहुत तमतमाये। वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहनकर, जहाँ-तहाँ गाल बजाने लगे॥१॥
धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई ।
जीवत हमहि कुरि को बरई॥
कोई कहते हैं, सीताको छीन लो और दोनों राजकुमारोंको पकड़कर बाँध लो। धनुष तोड़नेसे ही चाह नहीं सरेगी (पूरी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारीको कौन ब्याह सकता है? ॥२॥
जीतहु समर सहित दोउ भाई।
साधु भूप बोले सुनि बानी ।
राजसमाजहि लाज लजानी॥
यदि जनक कुछ सहायता करे, तो युद्धमें दोनों भाइयोंसहित उसे भी जीत लो। ये वचन सुनकर साधु राजा बोले-इस [निर्लज्ज] राजसमाजको देखकर तो लाज भी लजा गयी ॥ ३ ॥
नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई।
असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई।
अरे! तुम्हारा बल, प्रताप, वीरता, बड़ाई और नाक (प्रतिष्ठा) तो धनुषके साथ ही चली गयी। वही वीरता थी कि अब कहींसे मिली है ? ऐसी दुष्ट बुद्धि है, तभी तो विधाताने तुम्हारे मुखोंपर कालिख लगा दी॥४॥
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६ ॥
ईर्ष्या, घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र भरकर श्रीरामजी [की छबि] को देख लो। लक्ष्मणके क्रोधको प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतंगे मत बनो॥२६६ ॥
जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही ।
सब संपदा चहै सिवद्रोही॥
जैसे गरुड़का भाग कौआ चाहे, सिंहका भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करनेवाला अपनी कुशल चाहे, शिवजीसे विरोध करनेवाला सब प्रकारकी सम्पत्ति चाहे, ॥ १ ॥
अकलंकता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा ।
तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥
लोभी-लालची सुन्दर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलंकता [चाहे तो] क्या पा सकता है? और जैसे श्रीहरिके चरणोंसे विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहे, हे राजाओ! सीताके लिये तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है ॥२॥
सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं ।
सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥
कोलाहल सुनकर सीताजी शंकित हो गयीं। तब सखियाँ उन्हें वहाँ ले गयीं जहाँ रानी (सीताजीकी माता) थीं। श्रीरामचन्द्रजी मनमें सीताजीके प्रेमका बखान करते हुए स्वाभाविक चालसे गुरुजीके पास चले॥३॥
अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं।
लखनु राम डर बोलि न सकहीं।
रानियोंसहित सीताजी [दुष्ट राजाओंके दुर्वचन सुनकर] सोचके वश हैं कि न जाने विधाता अब क्या करनेवाले हैं। राजाओंके वचन सुनकर लक्ष्मणजी इधर-उधर ताकते हैं; किन्तु श्रीरामचन्द्रजीके डरसे कुछ बोल नहीं सकते॥४॥
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥२६७॥
उनके नेत्र लाल और भौहें टेढ़ी हो गयीं और वे क्रोधसे राजाओंकी ओर देखने लगे; मानो मतवाले हाथियोंका झुंड देखकर सिंहके बच्चेको जोश आ गया हो ॥ २६७॥
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