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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


श्रीलक्ष्मणजी का क्रोध



रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई ।
तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जसि अनुचित बानी ।
बिद्यमान रघुकुलमनि जानी॥


रघुवंशियोंमें कोई भी जहाँ होता है, उस समाजमें ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुलशिरोमणि श्रीरामजीको उपस्थित जानते हुए भी जनकजीने कहे हैं ॥१॥

सुनहु भानुकुल पंकज भानू ।
कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं ।
कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं।


हे सूर्यकुलरूपी कमलके सूर्य! सुनिये, मैं स्वभावहीसे कहता हूँ, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्माण्डको गेंदकी तरह उठा लूँ॥२॥

काचे घट जिमि डारौं फोरी ।
सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव प्रताप महिमा भगवाना ।
को बापुरो पिनाक पुराना॥


और उसे कच्चे घड़ेकी तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वतको मूलीकी तरह तोड़ सकता हूँ, हे भगवन् ! आपके प्रतापकी महिमासे यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है ॥३॥

नाथ जानि अस आयसु होऊ ।
कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं ।
जोजन सत प्रमान लै धावौं ।


ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिये। धनुषको कमलकी डंडीकी तरह चढ़ाकर उसे सौ योजनतक दौड़ा लिये चला जाऊँ॥४॥

दो०- तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥२५३॥


हे नाथ! आपके प्रतापके बलसे धनुषको कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूं। यदि ऐसा न करूँ तो प्रभुके चरणोंकी शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकसको कभी हाथमें भी न लूँगा ।। २५३॥



लखन सकोप बचन जे बोले।
डगमगानि महि दिग्गज डोले।
सकल लोग सब भूप डेराने ।
सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥


ज्यों ही लक्ष्मणजी क्रोधभरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओंके हाथी काँप गये। सभी लोग और सब राजा डर गये। सीताजीके हृदयमें हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गये ॥१॥

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं ।
मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे ।
प्रेम समेत निकट बैठारे॥


गुरु विश्वामित्रजी, श्रीरघुनाथजी और सब मुनि मनमें प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे। श्रीरामचन्द्रजीने इशारेसे लक्ष्मणको मना किया और प्रेमसहित अपने पास बैठा लिया॥२॥

बिस्वामित्र समय सुभ जानी ।
बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भंजहु भवचापा ।
मेटहु तात जनक परितापा।


विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले-हे राम! उठो, शिवजीका धनुष तोड़ो और हे तात! जनकका सन्ताप मिटाओ॥३॥

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा।
हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ ।
ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ।


गुरुके वचन सुनकर श्रीरामजीने चरणोंमें सिर नवाया। उनके मनमें न हर्ष हुआ, न विषाद; और वे अपनी ऐंड (खड़े होनेकी शान) से जवान सिंहको भी लजाते हुए सहज स्वभावसे ही उठ खड़े हुए ॥ ४ ॥

दो०- उदित उदय गिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भुंग॥ २५४॥


मञ्चरूपी उदयाचलपर रघुनाथजीरूपी बालसूर्यके उदय होते ही सब संतरूपी कमल खिल उठे और नेत्ररूपी भौरे हर्षित हो गये ।। २५४॥



नृपन्ह केरि आसा निसि नासी ।
बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने ।
कपटी भूप उलूक लुकाने।।


राजाओंकी आशारूपी रात्रि नष्ट हो गयी। उनके वचनरूपी तारोंके समूहका चमकना बंद हो गया (वे मौन हो गये)। अभिमानी राजारूपी कुमुद संकुचित हो गये और कपटी राजारूपी उल्लू छिप गये॥१॥

भए बिसोक कोक मुनि देवा ।
बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा।
गुर पद बंदि सहित अनुरागा ।
राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥


मुनि और देवतारूपी चकवे शोकरहित हो गये। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं। प्रेमसहित गुरुके चरणोंकी वन्दना करके श्रीरामचन्द्रजीने मुनियोंसे आज्ञा माँगी।।२।।

सहजहिं चले सकल जग स्वामी ।
मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी ।
पुलक पूरि तन भए सुखारी॥


समस्त जगतके स्वामी श्रीरामजी सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ हाथीको-सी चालसे स्वाभाविक ही चले। श्रीरामचन्द्रजीके चलते ही नगरभरके सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गये और उनके शरीर रोमाञ्चसे भर गये।।३॥

बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे ।
जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे।
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं।
तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं।


उन्होंने पितर और देवताओंकी वन्दना करके अपने पुण्योंका स्मरण किया। यदि हमारे पुण्योंका कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजीके धनुषको कमलकी डंडीकी भाँति तोड़ डालें॥४॥

दो०- रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥२५५॥

श्रीरामचन्द्रजीको [वात्सल्य] प्रेमके साथ देखकर और सखियोंको समीप बुलाकर सीताजीकी माता स्नेहवश विलखकर (विलाप करती हुई-सी) ये वचन बोलीं- ॥ २५५ ॥


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