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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।


मनु-शतरूपा-तप एवं वरदान



हे गिरिराजकुमारी ! अब भगवानके अवतारका वह दूसरा कारण सुनो-मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ-जिस कारणसे जन्मरहित. निर्गुण और रूपरहित (अव्यक्त सच्चिदानन्दघन) ब्रह्म अयोध्यापुरीके राजा हुए ॥१॥

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा।
बंधु समेत धरें मुनिबेषा।
जासु चरित अवलोकि भवानी।
सती सरीर रहिहु बौरानी॥


जिन प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको तुमने भाई लक्ष्मणजीके साथ मुनियोंका-सा वेष धारण किये वनमें फिरते देखा था और हे भवानी ! जिनके चरित्र देखकर सतीके शरीरमें तुम ऐसी बावली हो गयी थीं कि- ॥२॥

अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी।
तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा।
सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥

अब भी तुम्हारे उस बावलेपनकी छाया नहीं मिटती, उन्हींके भ्रमरूपी रोगके हरण करनेवाले चरित्र सुनो। उस अवतारमें भगवानने जो-जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धिके अनुसार तुम्हें कहूँगा ॥३॥

भरद्वाज सुनि संकर बानी।
सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥
लगे बहुरि बरनै बृषकेतू।
सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥


[याज्ञवल्क्यजीने कहा-] हे भरद्वाज! शङ्करजीके वचन सुनकर पार्वतीजी सकुचाकर प्रेमसहित मुसकरायीं। फिर वृषकेतु शिवजी जिस कारणसे भगवानका वह अवतार हुआ था, उसका वर्णन करने लगे॥४॥

दो०- सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।
राम कथा कलि मल हरनि मंगल करनि सुहाइ॥१४१॥


हे मुनीश्वर भरद्धाज ! मैं वह सब तुमसे कहता हूँ, मन लगाकर सुनो। श्रीरामचन्द्रजीकी कथा कलियुगके पापोंको हरनेवाली, कल्याण करनेवाली और बड़ी सुन्दर है॥१४१।।

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा।
जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दंपति धरम आचरन नीका।
अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥

स्वायम्भुव मनु और [उनकी पत्नी] शतरूपा, जिनसे मनुष्योंकी यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नीके धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादाका गान करते हैं ॥१॥

नृप उत्तानपाद सुत तासू।
ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रियव्रत ताही।
बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥


राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे, जिनके पुत्र [प्रसिद्ध] हरिभक्त ध्रुवजी हुए। उन (मनुजी) के छोटे लड़केका नाम प्रियव्रत था, जिसकी प्रशंसा वेद और पुराण करते हैं।। २॥

देवहूति पुनि तासु कुमारी।
जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदिदेव प्रभु दीनदयाला।
जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥


पुनः देवहूति उनकी कन्या थी, जो कर्दम मुनिकी प्यारी पत्नी हुई और जिन्होंने आदिदेव, दीनोंपर दया करनेवाले समर्थ एवं कृपालु भगवान कपिलको गर्भमें धारण किया॥३॥

सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना।
तत्त्व बिचार निपुन भगवाना।
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला।
प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥

तत्त्वोंका विचार करनेमें अत्यन्त निपुण जिन (कपिल) भगवानने सांख्यशास्त्रका प्रकटरूपमें वर्णन किया, उन (स्वायम्भुव) मनुजीने बहुत समयतक राज्य किया और सब प्रकारसे भगवानकी आज्ञा [रूप शास्त्रोंकी मर्यादा का पालन किया ॥४॥

सो०- होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन।
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥१४२॥

घरमें रहते बुढ़ापा आ गया, परन्तु विषयोंसे वैराग्य नहीं होता; [इस बातको सोचकर] उनके मनमें बड़ा दुःख हुआ कि श्रीहरिकी भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया॥१४२ ॥

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा।
नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता।
अति पुनीत साधक सिधि दाता॥


तब मनुजीने अपने पुत्र को जबर्दस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्रीसहित वनको गमन किया। अत्यन्त पवित्र और साधकोंको सिद्धि देनेवाला तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है॥१॥

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा।
तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहहिं मतिधीरा।
ग्यान भगति जनु धरे सरीरा॥


वहाँ मुनियों और सिद्धोंके समूह बसते हैं। राजा मनु हृदयमें हर्षित होकर वहीं चले। वे धीर बुद्धिवाले राजा-रानी मार्गमें जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किये जा रहे हों॥२॥

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा।
हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी।
धरम धुरंधर नृपरिषि जानी॥


[चलते-चलते] वे गोमतीके किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जलमें स्नान किया। उनको धर्मधुरन्धर राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आये॥३॥

जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए।
मुनिन्ह सकल सादर करवाए।
कृस सरीर मुनिपट परिधाना।
सत समाज नित सुनहिं पुराना॥


जहाँ-जहाँ सुन्दर तीर्थ थे, मुनियोंने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिये। उनका शरीर दुर्बल हो गया था, वे मुनियोंके-से (वल्कल) वस्त्र धारण करते थे और संतोंके समाजमें नित्य पुराण सुनते थे॥ ४॥

दो०- द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग॥१४३॥


और द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेमसहित जप करते थे। भगवान वासुदेवके चरणकमलोंमें उन राजा-रानीका मन बहुत ही लग गया।।१४३।।



करहिं अहार साक फल कंदा।
सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानंदा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे।
बारि अधार मूल फल त्यागे॥


वे साग, फल और कन्दका आहार करते थे और सच्चिदानन्द ब्रह्मका स्मरण करते थे। फिर वे श्रीहरिके लिये तप करने लगे और मूल-फलको त्यागकर केवल जलके आधारपर रहने लगे॥१॥

उर अभिलाष निरंतर होई।
देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखंड अनंत अनादी।
जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥

हृदयमें निरन्तर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम [कैसे] उन परम प्रभुको आँखोंसे देखें, जो निर्गुण, अखण्ड, अनन्त और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका चिन्तन किया करते हैं ॥२॥

नेति नेति जेहि बेद निरूपा।
निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना।
उपजहिं जासु अंस तें नाना।


जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनन्दस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं, एवं जिनके अंशसे अनेकों शिव, ब्रह्मा और विष्णुभगवान प्रकट होते हैं ॥३॥


ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई।
भगत हेतु लीलातनु गहई।
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा।
तौ हमार पूजिहि अभिलाषा।

ऐसे [महान्] प्रभु भी सेवकके वशमें हैं और भक्तोंके लिये [दिव्य] लीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदोंमें यह वचन सत्य कहा है तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी॥ ४॥

दो०- एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर अधार॥१४४॥


इस प्रकार जलका आहार [करके तप] करते छ: हजार वर्ष बीत गये। फिर सात हजार वर्ष वे वायुके आधारपर रहे।। १४४॥

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ।
ठाढ़े रहे एक पद दोऊ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा।
मनु समीप आए बहु बारा॥

दस हजार वर्षतक उन्होंने वायुका आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैरसे खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई बार मनुजीके पास आये॥१॥

मागहु बर बहु भाँति लोभाए।
परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा।
तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥


उन्होंने इन्हें अनेक प्रकारसे ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान् [राजा-रानी अपने तपसे किसीके] डिगाये नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियोंका ढाँचामात्र रह गया था, फिर भी उनके मनमें जरा भी पीड़ा नहीं थी॥२॥

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी।
गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी।
परम गभीर कृपामृत सानी॥


सर्वज्ञ प्रभुने अनन्य गति (आश्रय) वाले तपस्वी राजा-रानीको 'निज दास' जाना। तब परम गम्भीर और कृपारूपी अमृतसे सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि 'वर माँगो' ॥३॥

मृतक जिआवनि गिरा सुहाई।
श्रवन रंध्र होइ उर जब आई।
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए।
मानहुँ अबहिं भवन ते आए।

मुर्देको भी जिला देनेवाली यह सुन्दर वाणी कानोंके छेदोंसे होकर जब हृदयमें आयी, तब राजा-रानीके शरीर ऐसे सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट हो गये, मानो अभी घरसे आये हैं॥४॥

दो०- श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दंडवत प्रेम न हृदयँ समात॥१४५॥

कानोंमें अमृतके समान लगनेवाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। तब मनुजी दण्डवत् करके बोले, प्रेम हृदयमें समाता न था- ॥ १४५।।

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू।
बिधि हरि हर बंदित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक।
प्रनतपाल सचराचर नायक।


हे प्रभो ! सुनिये. आप सेवकोंके लिये कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपकी चरण रजकी ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी भी वन्दना करते हैं। आप सेवा करनेमें सुलभ हैं तथा सब सुखोंके देनेवाले हैं। आप शरणागतके रक्षक और जड-चेतनके स्वामी हैं॥१॥

जौं अनाथ हित हम पर नेहू।
तौ प्रसन्न होइ यह बर देहू॥
जो सरूप बस सिव मन माहीं।
जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥


हे अनाथोंका कल्याण करनेवाले! यदि हमलोगोंपर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिये कि आपका जो स्वरूप शिवजीके मनमें बसता है और जिस [की प्राप्ति के लिये मुनिलोग यत्न करते हैं ॥२॥

जो भुसुंडि मन मानस हंसा।
सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन।
कृपा करहु प्रनतारति मोचन।


जो काकभुशुण्डिके मनरूपी मानसरोवरमें विहार करनेवाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागतके दु:ख मिटानेवाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिये कि हम उसी रूपको नेत्र भरकर देखें ॥३॥

दंपति बचन परम प्रिय लागे।
मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना।
बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥

राजा-रानीके कोमल, विनययुक्त और प्रेमरसमें पगे हुए वचन भगवानको बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल, कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्वके निवासस्थान (या समस्त विश्वमें व्यापक), सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गये॥४॥

दो०- नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥१४६॥

भगवानके नीले कमल, नीलमणि और नीले (जलयुक्त) मेघके समान [कोमल, प्रकाशमय और सरस] श्यामवर्ण [चिन्मय] शरीरकी शोभा देखकर करोड़ों कामदेव भी लजा जाते हैं। १४६ ॥

सरद मयंक बदन छबि सींवा।
चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुंदर नासा।
बिधु कर निकर बिनिंदक हासा॥


उनका मुख शरद् [पूर्णिमा] के चन्द्रमाके समान छविकी सीमास्वरूप था। गाल और ठोड़ी बहुत सुन्दर थे, गला शङ्खके समान (त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव-उतारवाला) था। लाल ओठ, दाँत और नाक अत्यन्त सुन्दर थे। हँसी चन्द्रमाकी किरणावलीको नीचा दिखानेवाली थी॥१॥

नव अंबुज अंबक छबि नीकी।
चितवनि ललित भावती जी की।
भृकुटि मनोज चाप छबि हारी।
तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥


नेत्रोंकी छबि नये [खिले हुए] कमलके समान बड़ी सुन्दर थी। मनोहर चितवन जीको बहुत प्यारी लगती थी। टेढ़ी भौहें कामदेवके धनुषकी शोभाको हरनेवाली थीं। ललाटपटलपर प्रकाशमय तिलक था॥२॥

कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा।
कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला।
पदिक हार भूषन मनि जाला।


कानोंमें मकराकृत (मछलीके आकारके) कुण्डल और सिरपर मुकुट सुशोभित था। टेढ़े (धुंघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भौरोंके झुंड हों। हृदयपर श्रीवत्स, सुन्दर वनमाला, रत्नजटित हार और मणियोंके आभूषण सुशोभित थे॥३॥

केहरि कंधर चारु जनेऊ।
बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ।।
करि कर सरिस सुभग भुजदंडा।
कटि निषंग कर सर कोदंडा॥

सिंहकी-सी गर्दन थी, सुन्दर जनेऊ था। भुजाओंमें जो गहने थे, वे भी सुन्दर थे। हाथीकी सूंड़के समान (उतार-चढ़ाववाले) सुन्दर भुजदण्ड थे। कमरमें तरकस और हाथमें बाण और धनुष [शोभा पा रहे] थे॥४॥

दो०- तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि।
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भवँर छबि छीनि॥१४७॥

[स्वर्ण-वर्णका प्रकाशमय] पीताम्बर बिजलीको लजानेवाला था। पेटपर सुन्दर तीन रेखाएँ (त्रिवली) थीं। नाभि ऐसी मनोहर थी, मानो यमुनाजीके भँवरोंकी छबिको छीने लेती हो। १४७॥

पद राजीव बरनि नहिं जाहीं।
मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला।
आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला।

जिनमें मुनियोंके मनरूपी भौरे बसते हैं, भगवानके उन चरणकमलोंका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवानके बायें भागमें सदा अनुकूल रहनेवाली, शोभाकी राशि, जगतकी मूलकारणरूपा आदिशक्ति श्रीजानकीजी सुशोभित हैं॥१॥

जासु अंस उपजहिं गुनखानी।
अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई।
राम बाम दिसि सीता सोई॥


जिनके अंशसे गुणोंकी खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवोंकी शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंहके इशारेसे ही जगतकी रचना हो जाती है, वही [भगवानकी स्वरूपा-शक्ति] श्रीसीताजी श्रीरामचन्द्रजीकी बायीं ओर स्थित हैं।॥२॥

छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी।
एकटक रहे नयन पट रोकी।
चितवहिं सादर रूप अनूपा।
तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥


शोभाके समुद्र श्रीहरिके रूपको देखकर मनु-शतरूपा नेत्रोंके पट (पलकें) रोके हुए एकटक (स्तब्ध) रह गये। उस अनुपम रूपको वे आदरसहित देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही न थे॥३॥

हरष बिबस तन दसा भुलानी।
परे दंड इव गहि पद पानी।
सिर परसे प्रभु निज कर कंजा।
तुरत उठाए करुनापुंजा॥
आनन्दके अधिक वशमें हो जानेके कारण उन्हें अपने देहकी सुधि भूल गयी। वे हाथोंसे भगवानके चरण पकड़कर दण्डकी तरह (सीधे) भूमिपर गिर पड़े। कृपाकी राशि प्रभुने अपने करकमलोंसे उनके मस्तकोंका स्पर्श किया और उन्हें तुरंत ही उठा लिया ॥४॥

दो०- बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥१४८॥

फिर कृपानिधान भगवान बोले-मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मनको भाये वही वर माँग लो॥ १४८॥

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी।
धरि धीरजु बोली मृदु बानी।
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे।
अब पूरे सब काम हमारे॥


प्रभुके वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजाने कोमल वाणी कही-हे नाथ! आपके चरणकमलोंको देखकर अब हमारी सारी मन:कामनाएँ पूरी हो गयीं ॥१॥

एक लालसा बड़ि उर माहीं।
सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं।
अगम लाग मोहि निज कृपनाईं।

फिर भी मनमें एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यन्त कठिन भी, इसीसे उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी! आपके लिये तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अत्यन्त कठिन मालूम होता है ॥२॥

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई।
बहु संपति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई।
तथा हृदयँ मम संसय होई॥


जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्षको पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में संकोच करता है, क्योंकि वह उसके प्रभावको नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदयमें संशय हो रहा है॥३॥

सो तुम्ह जानहु अंतरजामी।
पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी।
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही।
मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥
हे स्वामी ! आप अन्तर्यामी हैं, इसलिये उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिये। [भगवानने कहा-] हे राजन् ! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है॥४॥

दो०- दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥१४९॥


[राजाने कहा-] हे दानियोंके शिरोमणि ! हे कृपानिधान ! हे नाथ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभुसे भला क्या छिपाना! ॥१४९ ॥

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले।
एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई।
नृप तव तनय होब मैं आई।

राजाकी प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले-ऐसा ही हो। हे राजन् ! मैं अपने समान [दूसरा] कहाँ जाकर खोचूँ। अत: स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा ॥१॥

सतरूपहि बिलोकि कर जोरें।
देबि मागु बरु जो रुचि तोरें।
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा।
सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥


शतरूपाजीको हाथ जोड़े देखकर भगवानने कहा-हे देवि! तुम्हारी जो इच्छा हो, सो वर माँग लो। [शतरूपाने कहा--] हे नाथ! चतुर राजाने जो वर माँगा. हे कृपालु ! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा॥ २ ॥

प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई।
जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी।
ब्रह्म सकल उर अंतरजामी।


परन्तु हे प्रभु! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तोंका हित करनेवाले! वह ढिठाई भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदिके भी पिता (उत्पन्न करनेवाले), जगतके स्वामी और सबके हृदयके भीतरकी जाननेवाले ब्रह्म हैं॥३॥

अस समुझत मन संसय होई।
कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं।
जो सुख पावहिं जो गति लहहीं।


ऐसा समझनेपर मनमें सन्देह होता है, फिर भी प्रभुने जो कहा वही प्रमाण (सत्य) है। [मैं तो यह माँगती हूँ कि] हे नाथ! आपके जो निज जन हैं वे जो (अलौकिक, अखण्ड) सुख पाते हैं और जिस परम गतिको प्राप्त होते हैं ॥ ४॥

दो०- सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु ॥१५०॥

हे प्रभो! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने चरणोंमें प्रेम, वही ज्ञान और वही रहन-सहन कृपा करके हमें दीजिये ॥ १५० ॥

सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना।
कृपासिंधु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं।
मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥


[रानीकी] कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्यरचना सुनकर कृपाके समुद्र भगवान कोमल वचन बोले-तुम्हारे मनमें जो कुछ इच्छा है, वह सब मैंने तुमको दिया, इसमें कोई सन्देह न समझना ॥१॥

मातु बिबेक अलौकिक तोरें।
कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥
बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी।
अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥


हे माता! मेरी कृपासे तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनुने भगवानके चरणोंको वन्दना करके फिर कहा-हे प्रभु! मेरी एक विनती और है- ॥२॥

सुत बिषइक तव पद रति होऊ।
मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना।
मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना।

आपके चरणोंमें मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्रके लिये पिताकी होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणिके बिना साँप और जलके बिना मछली [नहीं रह सकती], वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके) ॥३॥

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ।
एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी।
बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥


ऐसा वर माँगकर सला भगवानके चरण पकड़े रह गये। तब दयाके निधान भगवानने कहा-ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इन्द्रकी राजधानी (अमरावती) में जाकर वास करो॥४॥

सो०- तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥१५१॥


हे तात! वहाँ [स्वर्गके] बहुत-से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जानेपर, तुम अवधके राजा होगे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा॥१५१॥


इच्छामय नरबेष सँवारें।
होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें।
अंसह सहित देह धरि ताता।
करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥


इच्छानिर्मित मनुष्यरूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात! मैं अपने अंशोंसहित देह धारण करके भक्तोंको सुख देनेवाले चरित्र करूँगा॥१॥

जे सुनि सादर नर बड़भागी।
भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया।
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥


जिन (चरित्रों) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागरसे तर जायँगे। आदिशक्ति यह मेरी [स्वरूपभूता] माया भी, जिसने जगतको उत्पन्न किया है, अवतार लेगी॥२॥

पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा।
सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना।
अंतरधान भए भगवाना॥


इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य है, सत्य है, सत्य है। कृपानिधान भगवान बार-बार ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये॥३॥

दंपति उर धरि भगत कृपाला।
तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा।
जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥


वे स्त्री-पुरुष (राजा-रानी) भक्तोंपर कृपा करनेवाले भगवानको हृदयमें धारण करके कुछ कालतक उस आश्रममें रहे। फिर उन्होंने समय पाकर, सहज ही (बिना किसी कष्टके) शरीर छोड़कर, अमरावती (इन्द्रकी पुरी) में जाकर वास किया॥४॥

दो०- यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥१५२॥।

[याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-] हे भरद्वाज! इस अत्यन्त पवित्र इतिहासको शिवजीने पार्वतीसे कहा था। अब श्रीरामके अवतार लेनेका दूसरा कारण सुनो ॥ १५२ ॥

मासपारायण, पाँचवाँ विश्राम।

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