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श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

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निःशुल्क ई-पुस्तकें >> श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)

गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।

शिवजी द्वारा सती का त्याग, शिवजी की समाधि



सती समुझि रघुबीर प्रभाऊ।
भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं।
कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाई।

सतीजी ने श्रीरघुनाथजीके प्रभाव को समझकर डरके मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन् ! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, [वहाँ जाकर] आपकी ही तरह प्रणाम किया॥१॥

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई।
मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना।
सती जो कीन्ह चरित सबु जाना॥

आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजीने ध्यान करके देखा और सतीजीने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥२॥

बहुरि राममायहि सिरु नावा।
प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा।।
हरि इच्छा भावी बलवाना।
हृदय बिचारत संभु सुजाना॥

फिर श्रीरामचन्द्रजीकी मायाको सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सतीके मुँहसे भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजीने मनमें विचार किया कि हरिकी इच्छारूपी भावी प्रबल है ॥३॥

सती कीन्ह सीता कर बेषा।
सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती।
मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥

सतीजी ने सीताजीका वेष धारण किया, यह जानकर शिवजीके हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सतीसे प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥४॥

दो०- परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पाए।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥५६॥

सती परम पवित्र हैं, इसलिये इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदयमें बड़ा सन्ताप है।। ५६॥

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा।
सुमिरत रामु हृदय अस आवा।
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं।
सिव संकल्यु कीन्ह मन माहीं॥

तब शिवजीने प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें सिर नवाया और श्रीरामजीका स्मरण करते ही उनके मनमें यह आया कि सतीके इस शरीरसे मेरी [पति-पत्नीरूपमें] भेंट नहीं हो सकती और शिवजीने अपने मनमें यह सङ्कल्प कर लिया ॥१॥

अस बिचारि संकरु मतिधीरा।चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥

स्थिरबुद्धि शङ्करजी ऐसा विचारकर श्रीरघुनाथजीका स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुन्दर आकाशवाणी हुई कि हे महेश! आपकी जय हो। आपने भक्तिकी अच्छी दृढ़ता की ॥२॥

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना।
रामभगत समरथ भगवाना।।
सुनि नभगिरा सती उर सोचा।
पूछा सिवहि समेत सकोचा।

आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है? आप श्रीरामचन्द्रजीके भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान हैं। इस आकाशवाणीको सुनकर सतीजीके मनमें चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजीसे पूछा- ॥३॥

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला।
सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती।
तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥

हे कृपालु! कहिये, आपने कौन-सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्यक धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजीने बहुत प्रकारसे पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजीने कुछ न कहा ॥ ४॥

दो०- सती हृदय अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥५७(क)।

सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गये। मैंने शिवजीसे कपट किया, स्त्री स्वभावसे ही मृर्ख और बेसमझ होती हैं ॥ ५७(क)।

सो०- जलु पय सरिस बिकाइ देखह प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥५७(ख)।।

प्रीतिकी सुन्दर रीति देखिये कि जल भी [दूधक साथ मिलकर] दूधके समान भाव बिकता है; परन्तु फिर कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद [प्रेम] जाता रहता है।। ५७(ख)।

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी।
चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा।
प्रगट न कहेउ मोर अपराधा।

अपनी करनीको याद करके सतीजीके हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। [उन्होंने समझ लिया कि] शिवजी कृपाके परम अथाह सागर हैं, इससे प्रकटमें उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा ॥१॥

संकर रुख अवलोकि भवानी।
प्रभु मोहि तजेउ हृदय अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई।
तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥

शिवजीका रुख देखकर सतीजीने जान लिया कि स्वामीने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदयमें व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय [भीतर-ही-भीतर] कुम्हारके आँवेके समान अत्यन्त जलने लगा॥२॥

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू।
कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा।
बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा।।

वृषकेतु शिवजीने सतीको चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देनेके लिये सुन्दर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्गमें विविध प्रकारके इतिहासोंको कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे ॥३॥

तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन।
बैठे बट तर करि कमलासन।
संकर सहज सरूपु सम्हारा।
लागि समाधि अखंड अपारा॥

वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञाको याद करके बड़के पेड़के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गये। शिवजीने अपना स्वाभाविक रूप सँभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गयी।॥ ४॥

दो०- सती बसहिं कैलास तब अधिक सोच मन माहिं।।
मरमुन कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥५८॥

तब सतीजी कैलासपर रहने लगी। उनके मनमें बड़ा दुःख था। इस रहस्यको कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युगके समान बीत रहा था॥५८॥

नित नव सोचु सती उर भारा।
कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना।
पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना।

सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःखसमुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्रीरघुनाथजी का अपमान किया और फिर पतिके वचनोंको झूठ जाना-॥१॥

सो फलु मोहि बिधाता दीन्हा।
जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा।।
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही।
संकर बिमुख जिआवसि मोही।

उसका फल विधाताने मुझको दिया, जो उचित था वही किया; परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है जो शङ्कर से विमुख होनेपर भी मुझे जिला रहा है॥२॥

कहि न जाइ कछु हृदय गलानी।
मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा।
आरति हरन बेद जसु गावा॥

सतीजीके हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा-हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदोंने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरनेवाले हैं॥३॥

तो मैं बिनय करउँ कर जोरी।
छूटउ बेगि देह यह मोरी।
जौं मोरें सिव चरन सनेह।
मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एह॥

तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाय। यदि मेरा शिवजीके चरणोंमें प्रेम है और मेरा यह [प्रेमका] व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है॥४॥

दो०- तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥५९॥

तो हे सर्वदर्शी प्रभो सुनिये और शीघ्र वह उपाय कीजिये जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह [पति-परित्यागरूपी] असह्य विपत्ति दूर हो जाय॥५९॥

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें संबत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी॥

दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जानेपर अविनाशी शिवजीने समाधि खोली॥१॥

राम नाम सिव सुमिरन लागे।
जानेउ सती जगतपति जागे।।
जाइ संभु पद बंदनु कीन्हा।
सनमुख संकर आसनु दीन्हा ।।

शिवजी रामनामका स्मरण करने लगे, तब सतीजीने जाना कि अब जगतके स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होंने जाकर शिवजीके चरणोंमें प्रणाम किया। शिवजीने उनको बैठनेके लिये सामने आसन दिया ॥२॥

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