श्रीरामचरितमानस अर्थात् तुलसी रामायण बालकाण्ड)
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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामायण को रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है। इस रामायण के पहले खण्ड - बालकाण्ड में भी मनोहारी कथा के साथ-साथ तत्त्व ज्ञान के फूल भगवान को अर्पित करते चलते हैं।
मानस का रूप और माहात्म्य
रामचरितमानस एहि नामा।
सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा।
मन करि बिषय अनल बन जरई।
होइ सुखी जौं एहिं सर परई॥
इसका नाम रामचरितमानस है, जिसके कानोंसे सुनते ही शान्ति मिलती है। मनरूपी हाथी
विषयरूपी दावानलमें जल रहा है. वह यदि इस रामचरितमानसरूपी सरोवरमें आ पड़े तो
सुखी हो जाय ॥४॥सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा।
मन करि बिषय अनल बन जरई।
होइ सुखी जौं एहिं सर परई॥
रामचरितमानस मुनि भावन।
बिरचेउ संभु सुहावन पावन।
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन।
कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥
यह रामचरितमानस मुनियों का प्रिय है, इस सुहावने और पवित्र मानस की शिवजीने
रचना की। यह तीनों प्रकारके दोषों, दुःखों और दरिद्रताको तथा कलियुगकी कुचालों
और सब पापोंका नाश करनेवाला है ॥५॥बिरचेउ संभु सुहावन पावन।
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन।
कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥
रचि महेस निज मानस राखा।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।
तातें रामचरितमानस बर।
धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर।।
श्रीमहादेवजीने इसको रचकर अपने मनमें रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजीसे कहा।
इसीसे शिवजीने इसको अपने हृदयमें देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुन्दर
'रामचरितमानस' नाम रखा ॥६॥पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।
तातें रामचरितमानस बर।
धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर।।
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई।
सादर सुनहु सुजन मन लाई।
मैं उसी सुख देनेवाली सुहावनी रामकथाको कहता हूँ, हे सज्जनो! आदरपूर्वक मन
लगाकर इसे सुनिये ॥७॥ सादर सुनहु सुजन मन लाई।
दो०- जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥३५॥
यह रामचरितमानस जैसा है, जिस प्रकार बना है और जिस हेतुसे जगतमें इसका प्रचार
हुआ, अब वही सब कथा में श्रीउमा-महेश्वरका स्मरण करके कहता हूँ॥३५॥अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥३५॥
संभु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी।
रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी।
सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥
श्रीशिवजीकी कृपासे उसके हृदयमें सुन्दर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह
तुलसीदास श्रीरामचरितमानस का कवि हुआ। अपनी बुद्धिके अनुसार तो वह इसे मनोहर ही
बनाता है। किंतु फिर भी हे सज्जनो! सुन्दर चित्तसे सुनकर इसे आप सुधार
लीजिये॥१॥रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी।
सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥
सुमति भूमि थल हृदय अगाधू।
बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी।
मधुर मनोहर मंगलकारी॥
सुन्दर (सात्त्विकी) बुद्धि भूमि है, हृदय ही उसमें गहरा स्थान है,
वेद-पुराण समुद्र हैं और साधु-संत मेघ हैं। वे (साधुरूपी मेघ) श्रीरामजीके
सुयशरूपी सुन्दर, मधुर, मनोहर और मङ्गलकारी जलकी वर्षा करते हैं ॥२॥ बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी।
मधुर मनोहर मंगलकारी॥
लीला सगुन जो कहहिं बखानी।
सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।
प्रेम भगति जो बरनि न जाई।
सोइ मधुरता सुसीतलताई।
सगुण लीलाका जो विस्तारसे वर्णन करते हैं, वही राम-सुयशरूपी जलकी निर्मलता है,
जो मलका नाश करती है; और जिस प्रेमाभक्तिका वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस
जलकी मधुरता और सुन्दर शीतलता है ॥३॥सोइ स्वच्छता करइ मल हानी।।
प्रेम भगति जो बरनि न जाई।
सोइ मधुरता सुसीतलताई।
सो जल सुकृत सालि हित होई।
राम भगत जन जीवन सोई।।
मेधा महि गत सो जल पावन।
सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना।
सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
वह (राम-सुयशरूपी) जल सत्कर्मरूपी धानके लिये हितकर है और श्रीरामजीके भक्तोंका
तो जीवन ही है। वह पवित्र जल बुद्धिरूपी पृथ्वीपर गिरा और सिमटकर सुहावने
कानरूपी मार्गसे चला और मानस (हृदय) रूपी श्रेष्ठ स्थानमें भरकर वहीं स्थिर हो
गया। वही पुराना होकर सुन्दर, रुचिकर, शीतल और सुखदायी हो गया।। ४-५॥राम भगत जन जीवन सोई।।
मेधा महि गत सो जल पावन।
सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना।
सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥
दो०- सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥३६॥
इस कथामें बुद्धिसे विचारकर जो चार अत्यन्त सुन्दर और उत्तम संवाद (भुशुण्डि--
गरुड़, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और संत) रचे हैं, वही इस
पवित्र और सुन्दर सरोवरके चार मनोहर घाट हैं॥३६॥ तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥३६॥
सप्त प्रबंध सुभग सोपाना।
ग्यान नयन निरखत मन माना।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा।
बरनब सोइ बर बारि अगाधा।
सात काण्ड ही इस मानस-सरोवरकी सुन्दर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञानरूपी
नेत्रोंसे देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। श्रीरधुनाथजीकी निर्गुण (प्राकृतिक
गुणोंसे अतीत) और निर्बाध (एकरस) महिमाका जो वर्णन किया जायगा, वही इस सुन्दर
जलकी अथाह गहराई है।।१।।ग्यान नयन निरखत मन माना।
रघुपति महिमा अगुन अबाधा।
बरनब सोइ बर बारि अगाधा।
राम सीय जस सलिल सुधासम।
उपमा बीचि बिलास मनोरम।
पुरइनि सघन चारु चौपाई।
जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई।।
श्रीरामचन्द्रजी और सीताजीका यश अमृतके समान जल है। इसमें जो उपमाएँ दी गयी हैं
वही तरंगोंका मनोहर विलास है। सुन्दर चौपाइयाँ ही इसमें घनी फैली हुई पुरइन
(कमलिनी) हैं और कविताकी युक्तियाँ सुन्दर मणि (मोती) उत्पन्न करनेवाली सुहावनी
सीपियाँ हैं।। २।।उपमा बीचि बिलास मनोरम।
पुरइनि सघन चारु चौपाई।
जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई।।
छंद सोरठा सुंदर दोहा।
सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा।
सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
जो सुन्दर छन्द. सोरठे और दोहे हैं, वही इसमें बहुरंगे कमलोंके समूह सुशोभित
हैं। अनुपम अर्थ, ऊंचे भाव और सुन्दर भाषा ही पराग (पुष्परज), मकरन्द(पुष्परस)
और सुगन्ध हैं ॥ ३॥सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा।
सोइ पराग मकरंद सुबासा॥
सुकृत पुंज मंजुल अलि माला।
ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती।
मीन मनोहर ते बहुभाती॥
सत्कर्मों (पुण्यों) के पुल भौंरोंकी सुन्दर पंक्तियाँ हैं. ज्ञान, वैराग्य और
विचार हंस हैं। कविताकी ध्वनि वक्रोक्ति, गुण और जाति ही अनेकों प्रकारकी मनोहर
मछलियाँ हैं।॥ ४॥ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती।
मीन मनोहर ते बहुभाती॥
अरथ धरम कामादिक चारी।
कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप जोग बिरागा।
ते सब जलचर चारु तड़ागा॥
अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-ये चारों, ज्ञान-विज्ञान का विचार के कहना, काव्य के नौ
रस, जप, तप, योग और वैराग्य के प्रसंग-ये सब इस सरोवरके सुन्दर जलचर जीव हैं॥५॥कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप जोग बिरागा।
ते सब जलचर चारु तड़ागा॥
सुकृती साधु नाम गुन गाना।
ते विचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवराई।
श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
सुकृती (पुण्यात्मा) जनोंके, साधुओं के और श्रीरामनामके गुणोंका गान ही विचित्र
जल-पक्षियोंके समान है। संतोंकी सभा ही इस सरोवरके चारों ओरकी अमराई (आमकी
बगीचियाँ) हैं और श्रद्धा वसन्त ऋतुके समान कही गयो है॥६॥ ते विचित्र जलबिहग समाना॥
संतसभा चहुँ दिसि अवराई।
श्रद्धा रितु बसंत सम गाई॥
भगति निरूपन बिबिध बिधाना।
छमा दया दम लता बिताना।
सम जम नियम फूल फल ग्याना।
हरि पद रति रस बेद बखाना।।
नाना प्रकार से भक्ति का निरूपण और क्षमा, दया तथा दम (इन्द्रियनिग्रह) लताओंके
मण्डप हैं। मनका निग्रह, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह),
नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान) ही उनके फूल हैं, ज्ञान फल
है और श्रीहरिके चरणों में प्रेम ही इस ज्ञानरूपी फलका रस है। ऐसा वेदों ने कहा
है ॥७॥ छमा दया दम लता बिताना।
सम जम नियम फूल फल ग्याना।
हरि पद रति रस बेद बखाना।।
औरउ कथा अनेक प्रसंगा।
तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा।।
इस (रामचरितमानस) में और भी जो अनेक प्रसंगोंकी कथाएँ हैं, वे ही इसमें तोते,
कोयल आदि रंग-बिरंगे पक्षी हैं॥ ८॥ तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा।।
दो०- पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहंग बिहारु।
माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥३७॥
कथामें जो रोमाञ्च होता है वही वाटिका, बाग और वन हैं; और जो सुख होता है, वही
सुन्दर पक्षियोंका विहार है। निर्मल मन ही माली है जो प्रेमरूपी जलमे सुन्दर
नेत्रोंद्वारा उनको सींचता है।।३७॥ माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु॥३७॥
जे गावहिं यह चरित सँभारे।
तेइ एहि ताल चतुर रखवारे।
सदा सुनहिं सादर नर नारी।
तेइ सुरबर मानस अधिकारी।
जो लोग इस चरित्रको सावधानीसे गाते हैं, वे ही इस तालाबके चतुर रखवाले हैं और
जो स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक इसे सुनते हैं. वे ही इस सुन्दर मानसके अधिकारी
उत्तम देवता हैं।। १।।तेइ एहि ताल चतुर रखवारे।
सदा सुनहिं सादर नर नारी।
तेइ सुरबर मानस अधिकारी।
अति खल जे विषई बग कागा।
एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक भेक सेवार समाना।
इहाँ न बिषय कथा रस नाना।।
जो अति दुष्ट और विषयी हैं वे अभागे बगुले और कौवे हैं, जो इस सरोवरक समीप नहीं
जाते। क्योंकि यहाँ (इस मानस-सरोवरमें) घोंघे, मेढक और सेवारके समान विषय-रसकी
नाना कथाएँ नहीं हैं।। २॥एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥
संबुक भेक सेवार समाना।
इहाँ न बिषय कथा रस नाना।।
तेहि कारन आवत हियँ हारे।
कामी काक बलाक बिचारे।
आवत एहिं सर अति कठिनाई।
राम कृपा बिनु आइ न जाई।।
इसी कारण बेचारे कौवे और बगुलेरूपी विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदयमें हार मान
जाते हैं। क्योंकि इस सरोवरतक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं। श्रीरामजीकी कृपा
बिना यहाँ नहीं आया जाता ।। ३।।कामी काक बलाक बिचारे।
आवत एहिं सर अति कठिनाई।
राम कृपा बिनु आइ न जाई।।
कठिन कुसंग कुपंथ कराला।
तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जंजाला।
ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥
घोर कुसंग ही भयानक बुरा रास्ता है; उन कुसंगियोंके वचन ही बाघ, सिंह और साँप
हैं। घरके काम-काज और गृहस्थीके भाँति-भाँतिके जंजाल ही अत्यन्त दुर्गम
बड़े-बड़े पहाड़ हैं ॥४॥तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जंजाला।
ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥
बन बहु बिषम मोह मद माना।
नदी कुतर्क भयंकर नाना।
नदी कुतर्क भयंकर नाना।
मोह, मद और मान ही बहुत-से बीहड़ वन हैं और नाना प्रकारके कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं॥५॥
दो०- जे श्रद्धा संबल रहित नहिं संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।।३८॥
जिनके पास श्रद्धारूपी राह-खर्च नहीं है और संतोंका साथ नहीं है और जिनको
श्रीरघुनाथजी प्रिय नहीं हैं, उनके लिये यह मानस अत्यन्त ही अगम है। (अर्थात्
श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेमके बिना कोई इसको नहीं पा सकता) ॥ ३८ ॥तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।।३८॥
जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई।
जातहिं नीद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा।
गएहुँ न मज्जन पाव अभागा।
यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँतक पहुंच भी जाय, तो वहाँ जाते ही उसे नीदरूपी
जूड़ी आ जाती है। हृदयमें मूर्खतारूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे
वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता ॥१॥जातहिं नीद जुड़ाई होई॥
जड़ता जाड़ बिषम उर लागा।
गएहुँ न मज्जन पाव अभागा।
करि न जाइ सर मजन पाना।
फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
जी बहोरि कोउ पूछन आवा।
सर निंदा करि ताहि बुझावा।
उससे उस सरोवरमें स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमानसहित लौट
आता है। फिर यदि कोई उससे [वहाँका हाल] पूछने आता है, तो वह [अपने अभाग्यकी बात
न कहकर] सरोवर की निन्दा करके उसे समझाता है॥२॥फिरि आवइ समेत अभिमाना॥
जी बहोरि कोउ पूछन आवा।
सर निंदा करि ताहि बुझावा।
सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही।
राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मजनु करई।
महा घोर त्रयताप न जरई॥
ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर
कृपाकी दृष्टिसे देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवरमें स्नान करता है और महान्
भयानक त्रितापसे (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापोंसे) नहीं जलता॥३॥राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मजनु करई।
महा घोर त्रयताप न जरई॥
ते नर यह सर तजहिं न काऊ।
जिन्ह के राम चरन भल भाऊ।
जो नहाइ चह एहिं सर भाई।
सो सतसंग करउ मन लाई॥
जिनके मनमें श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सुन्दर प्रेम है, वे इस सरोवरको कभी
नहीं छोड़ते। हे भाई! जो इस सरोवरमें स्नान करना चाहे वह मन लगाकर सत्संग
करे॥४॥जिन्ह के राम चरन भल भाऊ।
जो नहाइ चह एहिं सर भाई।
सो सतसंग करउ मन लाई॥
अस मानस मानस चख चाही।
भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदय आनंद उछाहू।
उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥
ऐसे मानस-सरोवरको हृदयके नेत्रोंसे देखकर और उसमें गोता लगाकर कविकी बुद्धि
निर्मल हो गयी, हृदयमें आनन्द और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनन्दका प्रवाह
उमड़ आया॥५॥ भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदय आनंद उछाहू।
उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू ॥
चली सुभग कबिता सरिता सो।
राम बिमल जस जल भरिता सो॥
सरजू नाम सुमंगल मूला।
लोक बेद मत मंजुल कूला।
उससे वह सुन्दर कवितारूपी नदी बह निकली, जिसमें श्रीरामजीका निर्मल यशरूपी जल
भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलोंकी
जड़ है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुन्दर किनारे हैं ॥६॥राम बिमल जस जल भरिता सो॥
सरजू नाम सुमंगल मूला।
लोक बेद मत मंजुल कूला।
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि।
कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥
यह सुन्दर मानस-सरोवरकी कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र है और कलियुगके [छोटे-बड़े]
पापरूपी तिनकों और वृक्षोंको जड़से उखाड़ फेंकनेवाली है।॥७॥ कलिमल तृन तरु मूल निकंदिनि॥
दो०- श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।।
संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल ॥३९॥
तीनों प्रकारके श्रोताओंका समाज ही इस नदीके दोनों किनारोंपर बसे हुए पुरवं.
गाँव और नगर हैं; और संतोंकी सभा ही सब सुन्दर मङ्गलोंकी जड़ अनुपम अयोध्याजी
है।। ३९ ॥ संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल ॥३९॥
रामभगति सुरसरितहि जाई।
मिली सुकीरति सरजु सुहाई।।
सानुज राम समर जसु पावन।
मिलेउ महानदु सोन सुहावन।।
सुन्दर कीर्तिरूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्तिरूपी गङ्गाजीमें जा मिली। छोटे भाई
लक्ष्मणसहित श्रीरामजीके युद्धका पवित्र यशरूपी सुहावना महानद सीन उसमें आ
मिला॥१॥ मिली सुकीरति सरजु सुहाई।।
सानुज राम समर जसु पावन।
मिलेउ महानदु सोन सुहावन।।
जुग बिच भगति देवधुनि धारा।
सोहति सहित सुधिरति बिचारा।।
त्रिविध ताप त्रासक तिमुहानी।
राम सरूप सिंधु समुहानी।।
दोनोंके बीच भक्तिरूपी गङ्गाजीकी धारा ज्ञान और वैराग्यके सहित शाभित हो रही
है। ऐसी तीनों तापोंको डरानेवाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूपरूपी समुद्रकी ओर जा
रही है ॥२॥सोहति सहित सुधिरति बिचारा।।
त्रिविध ताप त्रासक तिमुहानी।
राम सरूप सिंधु समुहानी।।
मानस मूल मिली सुरसरिही।
सुनत सुजन मन पावन करिही।
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा।
जनु सरि तीर तीर बन बागा।
इस (कीर्तिरूपी सरयू) का मूल मानस (श्रीरामचरित) है और यह [रामभक्तिरूपी]
गङ्गाजीमें मिली है, इसलिये यह सुननेवाले सज्जनोंके मनको पवित्र कर देगी। इसके
बीच-बीच में जो भिन्न-भिन्न प्रकारकी विचित्र कथाएँ हैं वे ही मानो नदीतटके
आस-पासके वन और बाग हैं ॥३॥सुनत सुजन मन पावन करिही।
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा।
जनु सरि तीर तीर बन बागा।
उमा महेस बिबाह बराती।
ते जलचर अगनित बहुभाँती।
रघुबर जनम अनंद बधाई।
भवर तरंग मनोहरताई।
श्रीपार्वतीजी और शिवजीके विवाहके बराती इस नदीमें बहुत प्रकारके असंख्य जलचर
जीव हैं। श्रीरघुनाथजीके जन्मकी आनन्द-वधाइयाँ ही इस नदीके भंवर और तरंगोंकी
मनोहरता है॥४॥ते जलचर अगनित बहुभाँती।
रघुबर जनम अनंद बधाई।
भवर तरंग मनोहरताई।
दो०- बालचरित चहु बंधु के बनज बिपुल बहुरंग।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग॥४०॥
चारों भाइयोंके जो बालचरित हैं, वे ही इसमें खिले हुए रंग-बिरंगे बहुत-से कमल
हैं। महाराज श्रीदशरथजी तथा उनकी रानियों और कुटुम्बियोंके सत्कर्म (पुण्य) ही
भ्रमर और जल-पक्षी हैं ॥ ४०॥नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग॥४०॥
सीय स्वयंबर कथा सुहाई।
सरित सुहावनि सो छबि छाई।
नदी नाव पट प्रस्न अनेका।
केवट कुसल उतर सबिबेका॥
श्रीसीताजीके स्वयंवरकी जो सुन्दर कथा है, वही इस नदीमें सुहावनी छबि छा रही
है। अनेकों सुन्दर विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदीकी नावें हैं और उनके विवेकयुक्त
उत्तर ही चतुर केवट हैं ॥१॥सरित सुहावनि सो छबि छाई।
नदी नाव पट प्रस्न अनेका।
केवट कुसल उतर सबिबेका॥
सुनि अनुकथन परस्पर होई।
पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी।
घाट सुबद्ध राम बर बानी।
इस कथाको सुनकर पीछे जो आपसमें चर्चा होती है. वही इस नदीके सहारेसहारे
चलनेवाले यात्रियोंका समाज शोभा पा रहा है। परशुरामजीका क्रोध इस नदीको भयानक
धारा है और श्रीरामचन्द्रजीके श्रेष्ठ वचन ही सुन्दर बंधे हुए घाट हैं।॥२॥पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी।
घाट सुबद्ध राम बर बानी।
सानुज राम बिबाह उछाहू।
सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं।
ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥
भाइयों सहित श्रीरामचन्द्रजीके विवाह का उत्साह ही इस कथा-नदी को कल्याणकारिणी
बाढ़ है, जो सभी को सुख देनवाली है। इसके कहने-सुनने में जो हर्षित और पुलकित
होते हैं, वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो प्रसन्न मनसे इस नदीमें नहाते हैं॥३॥सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं।
ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥
राम तिलक हित मंगल साजा।
परब जोग जनु जुरे समाजा॥
काई कुमति केकई केरी।
परी जासु फल बिपति घनेरी॥
श्रीरामचन्द्रजीके राजतिलक के लिये जो मङ्गल-साज सजाया गया, वही मानो पर्व के
समय इस नदी पर यात्रियोंके समूह इकट्ठे हुए हैं। कैकेयी की कुबुद्धि ही इस
नदीमें काई है, जिसके फलस्वरूप बड़ी भारी विपत्ति आ पड़ी॥ ४॥परब जोग जनु जुरे समाजा॥
काई कुमति केकई केरी।
परी जासु फल बिपति घनेरी॥
दो०- समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥४१॥
सम्पूर्ण अनगिनत उत्पातों को शान्त करने वाला भरतजी का चरित्र नदी-तटपर किया
जाने वाला जपयज्ञ है। कलियुगके पापों और दुष्टोंके अवगुणोंके जो वर्णन हैं वे
ही इस नदी के जल का कीचड़ और बगुले-कौए हैं॥४१॥कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥४१॥
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी।
समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू।
सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥
यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओंमें सुन्दर है। सभी समय यह परम सुहावनी और
अत्यन्त पवित्र है। इसमें शिव-पार्वतीका विवाह हेमन्त ऋतु है।
श्रीरामचन्द्रजीके जन्मका उत्सव सुखदायी शिशिर-ऋतु है॥१॥ समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू।
सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥
बरनब राम बिबाह समाजू।
सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू।
पंथकथा खर आतप पवनू॥
श्रीरामचन्द्रजीके विवाह-समाजका वर्णन ही आनन्द-मङ्गलमय ऋतुराज वसंत है।
श्रीरामजीका वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्गकी कथा ही कड़ी धूप और लू
है॥२॥ सो मुद मंगलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू।
पंथकथा खर आतप पवनू॥
बरषा घोर निसाचर रारी।
सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई।
बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई।।
राक्षसोंके साथ घोर युद्ध ही वर्षा-ऋतु है, जो देवकुलरूपी धानके लिये सुन्दर
कल्याण करनेवाली है। रामचन्द्रजीके राज्यकालका जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है
वही निर्मल सुख देनेवाली सुहावनी शरद्-ऋतु है॥३॥सुरकुल सालि सुमंगलकारी॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई।
बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई।।
सती सिरोमनि सिय गुन गाथा।
सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई।
सदा एकरस बरनि न जाई॥
सती-शिरोमणि श्रीसीताजीके गुणोंको जो कथा है, वही इस जलका निर्मल और अनुपम गुण
है। श्रीभरतजीका स्वभाव इस नदीको सुन्दर शीतलता है, जो सदा एक सी रहती है और
जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।।४।। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई।
सदा एकरस बरनि न जाई॥
दो०- अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चह बंधु की जल माधुरी सुबास॥४२॥
चारों भाइयोंका परस्पर देखना, बोलना, मिलना, एक दूसरेसे प्रेम करना, हँसना और
सुन्दर भाईपना इस जलकी मधुरता और सुगन्ध हैं॥४२॥ भायप भलि चह बंधु की जल माधुरी सुबास॥४२॥
आरति बिनय दीनता मोरी।
लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी।
आस पिआस मनोमल हारी।।
मेरा आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुन्दर और निर्मल जलका कम हलकापन नहीं है
(अर्थात् अत्यन्त हलकापन है)। यह जल बड़ा ही अनोखा है, जो सुननेसे ही गुण करता
है और आशारूपी प्यासको और मनके मैलको दूर कर देता है ॥१॥ लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी।
आस पिआस मनोमल हारी।।
राम सुप्रेमहि पोषत पानी।
हरत सकल कलि कलुष गलानी।।
भव श्रम सोषक तोषक तोषा।
समन दुरित दुख दारिद दोषा।
यह जल श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर प्रेमको पुष्ट करता है, कलियुगके समस्त पापों
और उनसे होनेवाली ग्लानिको हर लेता है। संसारके (जन्म-मृत्युरूप) श्रमको सोख
लेता है, सन्तोषको भी सन्तुष्ट करता है और पाप, ताप, दरिद्रता और दोषोंको नष्ट
कर देता है॥२॥हरत सकल कलि कलुष गलानी।।
भव श्रम सोषक तोषक तोषा।
समन दुरित दुख दारिद दोषा।
काम कोह मद मोह नसावन।
बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें।
मिटहिं पाप परिताप हिए तें।
यह जल काम, क्रोध, मद और मोहका नाश करनेवाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्यका
बढ़ानेवाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करनेसे और इसे पीनेसे हृदयमें रहनेवाले
सब पाप-ताप मिट जाते हैं ॥३॥ बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन॥
सादर मज्जन पान किए तें।
मिटहिं पाप परिताप हिए तें।
जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए।
ते कायर कलिकाल बिगोए।
तृषित निरखि रबि कर भव बारी।
फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी।।
जिन्होंने इस (राम-सुयशरूपी) जलसे अपने हृदयको नहीं धोया, वे कायर कलिकालके
द्वारा ठगे गये। जैसे प्यासा हिरन सूर्यकी किरणोंके रेतपर पड़नेसे उत्पन्न हुए
जलके भ्रमको वास्तविक जल समझकर पीनेको दौड़ता है और जल न पाकर दुःखी होता है,
वैसे ही वे (कलियुगसे ठगे हुए) जीव भी [विषयोंके पीछे भटककर] दु:खी होंगे॥४॥ते कायर कलिकाल बिगोए।
तृषित निरखि रबि कर भव बारी।
फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी।।
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