आचार्य श्रीराम शर्मा >> उन्नति के तीन गुण-चार चरण उन्नति के तीन गुण-चार चरणश्रीराम शर्मा आचार्य
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समस्त कठिनाइयों का एक ही उद्गम है – मानवीय दुर्बुद्धि। जिस उपाय से दुर्बुद्धि को हटाकर सदबुद्धि स्थापित की जा सके, वही मानव कल्याण का, विश्वशांति का मार्ग हो सकता है।
पुरुषार्थों में सबसे बड़ा पुरुषार्थ अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुसंस्कृत बनाना है। जिसने अपने को सुधार लिया, उसकी सारी उलझनें सुलझ जाती हैं। जिसने अपना निर्माण कर लिया, उसके लिए ही हर क्षेत्र में सफलता हाथ बाँधे खड़ी होगी। उन्नति और सुख-समृद्धि के लिए आकांक्षा करना उचित है, पर इसके लिए आवश्यक क्षमता एवं योग्यता को जुटाना भी आवश्यक है। बाह्य परिस्थितियों में चाहे जितनी ही अनुकूलता क्यों न हो, पर व्यक्ति यदि भीतर से खोखला है, तो उसे प्रतिकूलता का ही सामना करना पड़ेगा। इसलिए अभीष्ट मार्ग पर सफलता प्राप्त करने के लिए बाह्य उपकरण जुटाने के साथ-साथ आंतरिक सुधार के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए। यह भूल नहीं जाना चाहिए कि दुर्गुणी व्यक्ति कोई क्षणिक सफलता भले ही प्राप्त कर ले, उसे अंतत: असफल ही रहना पड़ता है। सत्याग्रही, शहीद इसी श्रेणी में आते हैं। गाँधी के सत्याग्रही लाठी खाते रहे, पर एक-एक कर आगे आए झंडे को झुकने न दिया, सीने पर गोलियाँ खाईं, जेल भरते चले गए और अंतत: अनाचारी शासन को विवश कर दिया कि वह देश को स्वतंत्रता वापस दे। शिवाजी के छापामार अपनी नीति में पूरी तरह सफल रहे। संख्या बल में थोड़े वे कैसे सोचते कि अपने शत्रु से जूझ पाएँगे, पर न केवल उन्होंने उस नीति से पश्चिमी घाट के अनेक किले जीते, खंड-खंड में टूटे भारत को संघर्ष की एक शिक्षा भी दी। उन्हीं के समकालीन थे बुंदेलखंड के संपतराय, छत्रसाल के पिता। वे अपनी नीति में अपने राज्य में असफल रहने पर शिवाजी से सीख लेकर आए, धैर्यपूर्वक अपने आपको संगठित किया फिर जीतकर ही चैन पाया। स्वतंत्रता आंदोलन के शहीद उँगली पर गिने जाने योग्य थे। सामने ब्रिटिश साम्राज्य व पराधीन भारत का सोया जनमानस था, पर उन्होंने घाटा उठाया, अपनी जान की बलि दे दी, स्वतंत्रता का पथ प्रशस्त किया। उनकी इस धर्मनिष्ठा को आने वाले वर्षों तक याद रखा जाता रहेगा।
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