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आचार्य श्रीराम शर्मा >> संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्र

संतुलित जीवन के व्यावहारिक सूत्र

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :67
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9843
आईएसबीएन :9781613012789

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मन को संतुलित रखकर प्रसन्नता भरा जीवन जीने के व्यावहारिक सूत्रों को इस पुस्तक में सँजोया गया है



सच्चे मित्र बनें-बनाएं


सच्ची मित्रता कैसी हुआ करती है, इस संबंध में संस्कृत के नीतिशास्त्र की एक प्रसिद्ध पंक्ति है कि ''राजद्वारे च श्मशाने यो तिष्ठति सः बान्धव: अर्थात राजद्वार और श्मशान घाट में जो साथ-साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर साथ खडा होता है, वही सच्चा मित्र हुआ करता है। यहाँ राजद्वार वास्तव में सुख-संपत्ति का प्रतीक है और श्मशान विपत्ति का। केवल सुख-संपत्ति के दिनों में मौजमस्ती करके दुःख-विपत्ति पडने पर आंखें चुराकर मुँह फेर लेने वाले मित्रता के नाम पर कलंक हैं।

मित्रता तो विशुद्ध हृदय की अभिव्यक्ति है। उसमें छल-कपट या मोह-भावना नहीं। जिसके हृदय में मैत्री-भावना विराजमान रहती है, उसके हृदय में प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा आदि दैवी गुणों का विकास होता रहता है। जिसने मैत्री भावनाएँ प्राप्त कर लीं उसके लिए संसार परिवार हो गया। स्वामी रामतीर्थ अमेरिका की यात्रा कर रहे थे। उनके पास अपने शरीर और उस पर पड़े हुए थोड़े से वस्त्रों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। किसी सज्जन ने उनसे पूछा - आपका अमेरिका में कोई संबंधी नहीं है, आपके पास धन भी नहीं है, वहाँ किस तरह निर्वाह करेंगे। रामतीर्थ ने आगंतुक की ओर देखकर कहा - मेरा एक मित्र है। वह कौन है? उस व्यक्ति ने पूछा। आप हैं वो मित्र, जिनके यहाँ मुझे सारी सुविधाएँ मिल जाएँगी और सचमुच रामतीर्थ की वाणी और उनकी आत्मीयता का कुछ ऐसा प्रभाव पडा कि व्यक्ति स्वामी रामतीर्थ का घनिष्ठ मित्र बन गया। मित्रता की चाह प्रत्येक मनुष्य को होती है, पर वह ठहरती उन्हीं के पास है, जिनका हृदय शुद्ध होता है जिसे सच्ची मैत्री उपलब्ध हुई, उसे सौभाग्यशाली ही कहेंगे। अमेरिका के किसी पत्रकार ने धन-कुबेर हेनरी फोर्ड से पूछा - क्या आपके जीवन में ऐसी भी वस्तु है, जिसे आप प्राप्त न कर सके हों? हेनरी फोर्ड ने उत्तर दिया - यदि मुझे अपना जीवन फिर से शुरू करना पड़े तो मैं मित्रों की तलाश करूँगा। मेरे धन ने मुझे मित्रों से नहीं मिलने दिया। धन या कोई और वस्तु देकर मैत्री खरीदी नहीं जा सकती। मनुष्य के गुण देखकर वह स्वयं मिल जाती है।

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