नई पुस्तकें >> प्रेमी का उपहार प्रेमी का उपहाररबीन्द्रनाथ टैगोर
|
0 |
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद
इस महा निराशा में केवल आशा ही जीवन का सहारा है
जैसे ही चैत मास मरणासन्न हुआ है ग्रीष्म ने जैसे ही, अनिच्छामय पृथ्वी को अपने चुम्बनों से सताना आरम्भ कर दिया तब मैंने सोचा कि मैं भी अब अपनी कली के नेत्रों को खोल दूँ। कुछ डरा-सा कुछ उत्सुक-सा मैं वैसे ही आया और मानों एक नटखट बालक की भाँति साधु की झोंपड़ी में ताककर कुछ देखने का प्रयत्न करने लगा।
मैं खड़ा हो गया। मैंने सुना कि उजड़े हुए वन-वृक्षों के मध्य एक भयंकर कानाफूसी चल रही है। मैंने कोकिल के गायन को भी सुना पर उस समय जब ग्रीष्म पूर्णतया थककर बैठ गया था। अपनी जन्म कोठरी के समीप लगे-अशान्त एवं थिरकते हुए पत्तों से बने आवरण के पार मैंने देखा–तो क्या देखा कि ‘संसार उदास है, दुखी है और निराशा की भाँति उजड़ा हुआ है।’
किन्तु तिस पर भी एक निडर युवक की भाँति अपने यौवन पर विश्वास रखते हुए मैं निस्संदेह एवं शक्तिमय हो इस संसार तल पर आया। इसी संसार में पदार्पण करते ही आकाश के प्रदीप्त कटोरे से मैंने जलती हुई ज्वाला-सी मदिरा को उठाकर पी लिया। तत्पश्चात् मैंने सगर्व उषा को नमस्कार किया।
मैं तुम्हें बता दूँ कि मैं वही ‘चम्पा-पुष्प’ हूँ जो सूर्य की सुगंध को अपने हृदय में रखकर जी रहा है।
* * *
|