नई पुस्तकें >> प्रेमी का उपहार प्रेमी का उपहाररबीन्द्रनाथ टैगोर
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रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गद्य-गीतों के संग्रह ‘लवर्स गिफ्ट’ का सरस हिन्दी भावानुवाद
कुछ खोकर भी कुछ पा लिया जाता है
पुराने मार्ग से नित्यप्रति मेरा आना-जाना रहता है। अपने फलों को मैं स्वयं ही बाजार ले जाता हूँ। अपने गाय-बैलों को भी मैं ही टहलाने ले जाता हूँ। घास के उस पार मैं स्वयं ही अपनी नौका को लेकर जाता हूँ–और इसी कारण, मैं निर्झर की धाराओं पर बने सब मार्गों से परिचित हो गया हूँ।
एक दिन प्रातः मेरी डलिया तश्तरियों से बड़ी भारी हो गई थी। उस समय किसान अपने खेतों में व्यस्त थे। चरागाह मवेशियों से भरे हुए थे और पृथ्वी की छाती पके हुए चावालों से थिरक रही थी।
एकाएक, एक हवा का झोंका आया और मुझे ऐसा लगा मानो आकाश मेरे मस्तिष्क को चूमने वाला है। मुझे, तब, ऐसा प्रतीत हुआ मानो मेरा मस्तिष्क प्रातः की बेला के समान अंधकार रूपी कोहरे से बाहर निकल रहा है।
तब मैं भूल गया कि मुझे अभी और चलना है। दो चार कदम चल लेने पर ही अपना परिचित संसार मुझे अनोखा-सा दिखाई पड़ने लगा। तब मैंने समझा कि जैसे कली को अपना पुष्प अनोखा-सा जान पड़ता है; ऐसे ही मुझसे बना मेरा संसार मुझी को अनोखा जान पड़ता है। मेरे नित्यप्रति जीवन का मस्तिक ज्ञान मुझे शर्माया-सा प्रतीत हुआ। परीदेश को सौन्दर्य-घटा से लुभाने वाली वस्तुओं को देखकर मैं बहक गया।
यह मेरा अपूर्व सौभाग्य है कि उस प्रातःकाल मैं अपने मार्ग पर चलते-चलते खो गया और इस प्रकार अपने को खो देने पर मेरा भूला हुआ पर शाश्वत् बचपन मुझे फिर से मिल गया।
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