आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
दृष्टि पसार कर जिस ओर भी देखा जाए, उसी ओर समस्याओं, उलझनों, विडम्बनाओं, विपत्तियों, विग्रहों, विदोहों और संकटों के घटाटोप उमड़ते-उभरते दिखाई देते हैं। जिस प्रकृति का मद्यपान करके, जिसकी गोद में हम सब क्रीड़ा कलोल कर रहे थे, आश्चर्य है कि हम उसी की गर्दन घोंट डालने के लिए उतारू हो गए? जहां से हम अन्न-जल और वनस्पति प्राप्त करके जीवन धारण किए रहा करते थे, वह संपदा जिसके साथ हमारा संबंध सहोदर भाई जैसा है, यदि उसे इसी प्रकार नष्ट करते चले गए तो अर्धांग पक्षाघात पीड़ित की तरह हमारा जीवन भी स्थिर न रह सकेगा। भूगर्भ का असीम उत्खनन उसे बाँझ बनाकर छोड़ेगा। जलाशयों की संपदा को मारक तत्वों से भरते कारखाने, पीने योग्य पानी छोड़ेंगे भी या नहीं? आकाश-वायुमंडल जिस प्रकार प्रदूषण से, विकिरण से, कोलाहल से निरंतर भरता चला जा रहा है, उससे पृथ्वी का रक्षा कवच फट रहा है और बड़ा हुआ तापमान हिम क्षेत्रों को पिघलाकर समुद्र में ऐसी बाढ़ लाने का ताना-बाना बुन रहा है, जिससे जितना थल भाग अभी भी बचा है, उसका अधिकांश भाग उस बाढ़ में समा जाएगा।
बिच्छू के बारे में सुना जाता है कि उसके बच्चे माँ का पेट या पीकर तब बाहर निकलते हैं। लगता है मनुष्य ने कहीं बिच्छू की रीति-नीति तो नहीं अपना ली है, जिससे वह उस प्रकृति का सर्वनाश करके रहे, जो उसके जीवन धारण करने का प्रमुख आधार है। खीझी हुई प्रकृति क्या बदला ले सकती है? अणु उपकरणों के बदले क्या प्रकृति ही सर्वनाश, महाप्रलय सामने लाकर खड़ी कर सकती है? यह सब सोचने की मानो किसी को फुरसत ही नहीं है।
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