आचार्य श्रीराम शर्मा >> मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदले मनःस्थिति बदलें तो परिस्थिति बदलेश्रीराम शर्मा आचार्य
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समय सदा एक जैसा नहीं रहता। वह बदलता एवं आगे बढ़ता जाता है, तो उसके अनुसार नए नियम-निर्धारण भी करने पड़ते हैं।
भौतिक क्षेत्र की त्रिविध संपदाओं को प्रगति का माध्यम कहा गया है। समृद्धि, समर्थता और कुशलता के आधार पर व्यक्ति या समाज के सौभाग्य को सराहा जाता है। इसमें कोई हर्ज भी नहीं है, बशर्ते कि उन पर नैतिकता, सामाजिकता और सद्भावना का अंकुश ढीला न होने पाए। व्यक्ति कमाए कुछ भी, पर ध्यान इतना अवश्य रखें कि उसमें अनीति का, मुफ्तखोरी का समावेश तो नहीं हो रहा है? उस उपार्जन को भी निजी स्वामित्व के अंतर्गत ही न समझ लिया जाए। ध्यान इस बात का ही रखा जाए कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसकी आद्योपांत प्रगति जन सहयोग के आधार पर ही संभव हुई है। जिससे पाया है, उसे चुकाया भी जाना चाहिए अन्यथा लुटेरेपन की ही तूती बोलने लगेगी। तब ऋण चुकाने, प्रत्युपकार करने या कृतज्ञता जताने का द्वार ही बंद हो जाएगा। ऐसी दशा में संसार में दो ही वर्ग शेष रहेंगे - एक शोषक, दूसरा शोषित। तब उन स्थापनाओं और विधाओं के लिए कोई स्थान ही न रह जाएगा, जिनमें सहकारिता, सहभागिता और समानता की संस्थापना पर जोर दिया गया है।
यदि जीवन में भाव संवेदना एवं वैचारिक उदारता के लिए स्थान न रह गया, तो वह अराजकता ही दीख पड़ने लगेगी, जिसमें समर्थों के लिए पीसना और असमर्थों के लिए पिसना ही नियति है। ऐसा मत्स्य न्याय ही यदि मनुष्यों के लिए भी परंपरा बन जाए तो फिर उस श्रेठता के लिए कोई गुंजाइश ही न रहेगी, जिसके कारण मनुष्य को देवत्व का उत्तराधिकारी एवं प्राणी जगत की सर्वोच्च महत्ता का अधिकारी माना गया है। ''कमाने वाला ही खाए'' की नीति को यदि मान्यता मिल गई तो संसार में अबोधों, अविकसितों, अपंगों, असमर्थों को जीवित रहने का कोई अधिकार ही न रह जाएगा। उस स्थिति में अर्थशास्त्र के अनुसार मनुष्यों में से प्राय: आधों को अपने जीवन का अंत करना होगा। तब बूढ़ों को जीवित रहने देने की हिमायत किस तर्क के आधार पर की जा सकेगी? तब फिर इस संसार में भेड़ियों को भेड़ियों द्वारा ही फाड़ चीर कर खा जाने जैसे दृश्य सर्वत्र उपस्थित होंगे। तब कैसा वीभत्स होगा संसार?
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