ई-पुस्तकें >> कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ) कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)नवलपाल प्रभाकर
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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है
बगुले की आवाज में जोश बढ़ता ही जा रहा था मगर सभी चुपचाप सुनते जा रहे थे। बोलने को कोई भी तैयार नहीं था। अंत में खरगोश बोला- भाई बगुले मैं जानता हूं कि आप यदि इसी प्रकार से बोलते रहे तो इन सभी में जोश जरूर जगा देंगे और ये भ्रष्ट शासन के विरुद्ध आवाज उठाने को भी तैयार हो जायेंगे। मगर मेरा मानना है कि हमें घृणा पाप से करनी चाहिए ना कि पापी से। हम यदि चाहे तो पाप करने वाले को भी सुधार सकते हैं। मैं चाहता हूं कि इस बारे में आप कोई और राय दें।
बगुला कहने लगा- इस बार यदि कोई उसका प्रतिद्वंदी नहीं उठना चाहता है तो कोई बात नहीं। एक और तरीका है जो उसे सही रास्ते पर ला सकता है और वो है एकजुटता। यदि जंगल के सारे जीव-जन्तु जो आज यहां एकत्रित हुए हैं। इसी प्रकार से उसके पास एकत्रित होकर चले जायें और उससे कहें कि वह यदि अमन-शांति चाहता है तो जंगल से भ्रष्टाचार खत्म करके एक सुशासन की नींव रखे। इसके लिए उसे खुद सुधरना होगा। ईमानदारी से काम करना होगा, उसका जो भी नुमाईंदा या पंच उसके खिलाफ या जंगल के जीवों के खिलाफ कोई गलत साजिश या गलत काम करे, उसे तुरंत प्रभाव से जंगल से बाहर करे फिर वह चाहे जहां जाये। जंगल की जनता का हित करे। उसके साथ दुर्व्यवहार ना करे, सबकी बहू-बेटियों की इज्जत करे। उसके आचरण से ही प्रभावित होकर अन्य पंच भी वैसा ही व्यवहार करने लगेंगे। तब जाकर इस जंगल में अमन शांति हो सकेगी।
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