ई-पुस्तकें >> कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ) कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)नवलपाल प्रभाकर
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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है
यह आवाज सुनकर बगुला हांड़ी के अन्दर से कहने लगा- मैं जीऊं सूं, मैं जांगू सूं। तु बच्चा धोरे जा हे बगुलन।
जाट ने जब हांड़ी से यह आवाज सुनी तो उसने झट हांड़ी को नीचे उतारा और लगा उसे खाने। पूरा का पूरा बगुला खा लेने पर जाट ने सांस लिया।
कुछ देर बाद फिर बगुलन आई और कहने लगी कि- मैं अरजुं थी, मैं बरजुं थी। तु जाट की ज्वार मत खा रे बगुला।
अब बगुला जाट के पेट में बोलने लगा कि- मैं जीऊं सूं, मैं जांगू सूं। तु बच्चा धोरे जा हे बगुलन।
जाट ने सोची कि यो तो मेरे पेट में भी बोले से। जाट ने तीन-चार तगड़े जवान इकट्ठे करे और बोला- कि मैं अब शौच के लिए चलता हूं तुम सभी लट्ठ ले लो। वहां पर एक बगुला निकलेगा। तुम निशाना न चूक जाना तुमने उस बगुले को मारना है।
सभी जाट के पीछे-पीछे चलने लगे। जाट शौच के लिए बैठ गया। सभी युवक उसके इर्द-गिर्द लट्ठ लिए चौकन्ने खड़े थे। बगुला जैसे ही निकला वह फुर्र से उड़ गया। सभी युवक अपने-अपने लट्ठ दे मारे जाट को। अब तो बेचारे जाट का बुरा हाल था। सभी मिलकर जाट को उठाकर घर ले गए।
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