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कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)

नवलपाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9832
आईएसबीएन :9781613016046

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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है

कुछ दिनों बाद चिड़िया के उस पैर में मवाद पड़ गया। इस पर भी चिड़िया दुखी नहीं हुई और खुशी-खुशी कहती फिर रही थी- कोई दही का प्याला पी लो जी, कोई दही का प्याला पी लो जी, कोई दही का प्याला पी लो जी।

फिर एक दिन ऐसा भी आया जब उसके उस पैर में कीड़े पड़ गये और पैर गलने लगा। अब भी वह चिड़िया कहीं से दवाई लाने की बजाए मस्ती में झूम रही थी और गाना गाती फिर रही थी। वह जब भी जमींदार को देखती तो गाती- हम बच्चों वाले हो गये जी, हम बच्चों वाले हो गये जी, हम बच्चों वाले हो गये जी।

जब उस चिड़िया के पूरे बदन में कीड़े पड़ गये और अपने घोंसले में पड़ी रहती तब भी उसका हौंसला ज्यों का त्यों था। जब उसका अंतिम समय आया तो वह उस जमींदार का इंतजार बड़ी बेसब्री से करने लगी।

जब वह जमींदार सुबह खेतों में टहलने के लिए आया तो चिड़िया आज भी उसी स्वाभिमानी अंदाज में कहने लगी - हम रामजी के घर चले जी, हम रामजी के घर चले जी, हम रामजी के घर चले जी।

यह कहकर वह चिड़िया मर गई और जब उस चिड़िया का शोर सुनाई ना दिया तो जमींदार उसके घोंसले के पास गया और उसके घोंसले में चिड़िया को मरा हुआ पाया। चिड़िया अब सचमुच में मर चुकी थी। वह सही में राम के घर जा चुकी थी। मगर चिड़िया ने उस जमींदार का हृदय परिवर्तन जरूर कर दिया था।

अब उस जमींदार के हृदय में भावना की हिलोरें उठने लगी थीं जो कि रोके से भी नहीं रुक रही थीं। और आँखों के जरिए बाहर आने लगी थी। बड़ी मुश्किल से उसने उस चिड़िया को उठाया और एक गडढा खोदकर उसमें दफनाया और उस चिड़िया से यह सीख ली कि किसी भी परिस्थिति में वह अपने स्वाभिमान को नहीं छोड़ेगा और स्वाभिमान के साथ ही जीयेगा।

 

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