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कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)

नवलपाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9832
आईएसबीएन :9781613016046

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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है

तब मेरी मां ने शाम को घर आने पर मुझे बताया तो बड़ा रोष मेरे अन्दर पैदा हुआ। जी तो करता था कि एक एप्लीकेशन वन विभाग को देकर इस ब्राह्मण का बुरा हाल करवाऊं, मगर घर वालों के मना करने पर मैं मान गया। दूसरे रोज देखा तो कुछ बच्चे कुल्हाड़ी लिए काटने लगे हुए थे। बेचारी कीकर चुपचाप अपने तने को कटते हुए और दर्द सहन करते हुए खड़ी अश्रु धारा बिखेरती हुई सी प्रतीत हो रही थी। उनको धमका कर दूर किया। फिर एक दिन मां ने कहा - देख भाई कीकर तो वैसे भी कटनी है, क्योंकि दुनिया की घूरती नजर उस पर पड़ चुकी है। आज नहीं तो कल उसे कोई काट ही ले जाएगा। तू एक काम कर उसे काट ला। कम-से-कम ईंधन तो बच जाएगा।

मैंने कहा- क्यों कटवाती है मां, रहने दे।

तब मां बोली- आधी तो कटी हुई है। हम इसे रहने भी देंगे तो भी वह सूखेगी... इसलिए काट ला।

मैं कुल्हाड़ी लेकर उस कीकर की तरफ बढ़ चला। जाकर देखा, मैं देख ही रहा था कि अचानक उस अर्द्ध निर्जीव सी कीकर में मुझको देखकर एक बार फिर से प्राणों का संचार हो गया था और वह मंद-मंद हिलने-डुलने लगी। मैं उसके पास जाकर देखने लगा तो देखा कि वास्तव में उसका आधा तना तो उस ब्राह्मण ने ही काट दिया था। मैंने उसके इस नाजुक से तने पर कुल्हाड़ी के प्रहार को देखा तो सहसा आँखों से अश्रु छलक पडे़ फिर किसी तरह से दिल मजबूत कर मैंने मन-ही-मन में कहा- भई कीकर मुझे माफ करना। मैं भी तुझे काटने ही आया हूं।

सहसा वह फिर से हंसी-खिली कीकर मुरझाने लगी। उसका शरीर निस्तेज सा होने लगा। मैंने रोते हुए उस पर अपनी कुल्हाड़ी का प्रहार किया। तीन-चार चोटें मारने पर ही एक ओर गिर पड़ी। वह ऐसी प्रतीत हो रही थी मानों मुझे देखते-देखते ही एकटकी लगाए हुए उसने अपने प्राण त्याग दिए हों और मैं भी जी भरके उसके पास खड़ा रो न सका। उस कीकर का यह बहुत बड़ा बलिदान था। मैं भी अपने आपको कोस रहा था। क्यों मैंने यह पेड़ लगाया, क्यों लगाकर इससे दिल लगाया और दिल लगाकर फिर इसे अपने ही हाथों से क्यों काटा?

मुझे बड़ी ग्लानि सी महसूस हो रही थी। सारा दिन पश्चाताप की आग में जलता रहा मैं।

 

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