आचार्य श्रीराम शर्मा >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
निराशाग्रस्त मनुष्य दिन-रात अपनी इच्छाओं, कामनाओं और वांछाओं की अपूर्ति पर ओंसू बहाता हुआ उनका काल्पनिक चिंतन करता हुआ तड़पा करता है। एक कुढ़न, एक त्रस्तता, एक वेदना हर समय उसके मनोमंदिर को जलाया करती है। बार-बार असफलता पाने से मनुष्य का अपने प्रति एक क्षुद्र भाव बन जाता है। उसे यह विश्वास हो जाता है कि वह किसी काम के योग्य नहीं है। उसमें कोई ऐसी क्षमता नहीं है, जिसके बल पर वह अपने स्वप्नों को पूरा कर सके, सुख और शांति पा सके।
साहस रहित मनुष्य का वैराग्य, असफलताजन्य विरक्ति और निराशा से उपजी हुई आत्मग्लानि बड़ी भयंकर होती है। इससे मनुष्य की अंतरात्मा कुचल जाती है।
ऐसे असात्विक वैराग्य का मुख्य कारण मनुष्य की मनोवांछाओ की असफलता ही है, जिसके कारण अपने से तथा संसार से घृणा हो जाती है। प्रतिक्रियास्वरूप संसार भी उससे नफरत करने लगता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य की मनोदशा उस भयानक बिंदु के पास तक पहुँच जाती है जहाँपर वह त्रास से त्राण पाने के लिए आत्महत्या जैसे जघन्य पाप की ओर तक प्रवृत्त होने लगता है।
जो भी अधिक इच्छाएँ रखेगा, बहुत प्रकार की कामनाएँ करेगा, उसका ऐसी स्थिति में पहुँच जाना स्वाभाविक ही है। किसी मनुष्य की सभी मनोकामनाएँ सदा पूरी नहीं होती। वह हो भी नहीं सकतीं। मनुष्य की वांछाएँ इतनी अधिक होती हैं कि यदि संसार के समस्त साधन लगा दिए जाएँ तब भी वे पूरी न होंगी।
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