आचार्य श्रीराम शर्मा >> कामना और वासना की मर्यादा कामना और वासना की मर्यादाश्रीराम शर्मा आचार्य
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कामना एवं वासना को साधारणतया बुरे अर्थों में लिया जाता है और इन्हें त्याज्य माना जाता है। किंतु यह ध्यान रखने योग्य बात है कि इनका विकृत रूप ही त्याज्य है।
भोगों की तृषा एक ऐसी अक्षय प्यास है जो कभी शांत ही नहीं होती। लोग सुख के भ्रम में जवानी में भोगों के प्रति आकर्षित रहते हैं। उसके परिणाम पर विचार नहीं करते कि आज शक्ति होने पर जो वे अपनी वृत्तियों को भोगों का गुलाम बनाए दे रहे हैं, इसका फल आगे चलकर बुढ़ापे में क्या होगा? इस अशक्त एवं जर्जर अवस्था में भोगों की प्यासी वृत्तियाँ क्या शत्रु की तरह त्रास न देंगी? भोग एक प्रज्वलित अग्नि के समान है, इनको जितना ही भोगा जाता है इनकी ज्वाला उतनी ही बढ़ती जाती है और धीरे धीरे एक दिन मनुष्य की सारी सुख-शांति की संभावनाओं को सदा के लिए भस्म कर देती है।
भोगों की भयंकरता समझने के लिए महाराज ययाति का उदाहरण पर्याप्त है। राजा ययाति भोगों में आनंद की कल्पना कर बैठे। निदान आनंद पाने के लिए वे पूरी तरह से भोगों में डूबे रहने लगे। इसका फल यह हुआ कि उन्हें शीघ्र ही जरठता ने घेर लिया। उनकी शक्ति समाप्त हो गई किंतु भोगेच्छा और भी बढ़ गई। राजा ययाति अपनी विकृत वृत्तियों से दिन और रात दुखी रहने लगे। उनका दिन का चैन और रात्रि की नींद गायब हो गई। उनकी अतृप्त वासनाएँ उन्हें पल-पल पर त्रास देने लगीं। विषय-वासनाओं के बंदी राजा ने कोई उपाय न देखकर अपने को याचक बनाया सो अपने पुत्र से और वह भी यौवन का। उन्होंने अपने छोटे पुत्र से एक हजार वर्ष तक के लिए जवानी की भीख इसलिए माँगी कि वे अपनी अतृप्त वासनाओं को पुन: भोग सकें। पुत्र को अपने पिता की दशा पर बड़ा तरस आया। उसने अपना यौवन उन्हें दे दिया। ययाति की वासना कलुषित बुद्धि यह न सोच सकी कि पुत्र पर कितना बड़ा अन्याय होगा। किंतु भोगों का भूखा मनुष्य भेड़िए से कम निर्दयी नहीं होता।
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