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चमत्कारिक वनस्पतियाँ

उमेश पाण्डे

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :183
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9829
आईएसबीएन :9781613016060

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प्रकृति में पाये जाने वाले सैकड़ों वृक्षों में से कुछ वृक्षों को, उनकी दिव्यताओं को, इस पुस्तक में समेटने का प्रयास है

कलिहारी

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विभिन्न भाषाओं में नाम :

संस्कृत - लाङ्गंली, विशल्या, अग्निशिखा।
हिन्दी - कलिहारी, कलि (रि) यारी।
बंगाली - विषलालिया, ईशलाङ्गल।
मराठी - खड्यनाग, कललावी।
गुजराती - दूषियो बछनाग।
अंग्रेजी - सुपर्बलिलि (Superb Lily)
लैटिन - ग्लोरिओसा सुपर्बा (Gloriosa superba L.)
वनस्पतिक कुल - पलाण्डु कुल (लिलिआसी Liliaceae)

कलिहारी आरोहीलता स्वभाव की वनस्पति है। जिसका वायव्य भाग प्रायः एक वर्ष की आयु का होता है। नए पौधे वर्षा ऋतु में निकलते हैं तथा कुछ महीनों बाद स्वयं ही सूख जाते हैं। इनका स्तम्भ भूमि में फैला रहता है। ये भालाकार तथा लम्बी होती हैं। जो आगे से स्प्रिंग की तरह अन्दर की ओर घूमी रहती है। यह विशिष्ट परिवर्तन आरोहण में वनस्पति की सहायता करता है। दूर से देखने पर पत्तियाँ बाँस की पत्तियों के समान दिखाई देती हैं। इनके पुष्प के अक्ष से निकलते हैं। तथा 2 से 3 लम्बे पुष्प वृंतों पर टिके होते हैं तथा आगे की ओर झुके रहते हैं। इनका पुष्प 6 पत्रों का होता है जो प्रारंभ में पीले रंग का होता है किन्तु बाद में गाढ़े लाल रंग का होता है। इनके फलों से 2 इंच तक लम्बे होते हैं। ये शीर्ष से मुड़े हुए रहते हैं। इनके फलों में बहुत से गोलाकार बीज होते हैं।

समस्त भारतवर्ष, लंका तथा बर्मा के जंगलों में इसके स्वयंजात पौधे पाए जाते है। इसके पुष्प अत्यंत सुंदर व रंगबिरंगे होते हैं जिसके कारण ये वाटिकाओं व बागों में भी मिलते हैं तथा हिमालय में 400 फुट की ऊँचाई तक इसके पौधे मिलते हैं।

यह स्वभाव में लघु व तीक्ष्ण होती हैं। इसका रस कटु व तिक्त होता है। आयुर्वेदानुसार यह अल्पमात्रा में दीपन एवं कटु पौष्टिक वनस्पति है तथा अधिक मात्राओं में गर्भनिस्तारक है।

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