जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पर मैंने उसे बोझ बना लिया। मुझे लगा कि मूल पुस्तके पढ़ ही जानी चाहिये। न पढ़ने में मुझे धोखेबाजी लगी। इसलिए मैंने मूल पुस्तके खरीदने पर काफी खर्च किया। मैंने रोमन लॉ को लेटिन में पढ़ डालने का निश्चय किया। विलायत की मैंट्रिक्युलेशन की परीक्षा में मैंने लेटिन सीखी थी, यह पढ़ाई व्यर्थ नहीं गयी। दक्षिण अफ्रीका में रोमन-डच लॉ (कानून) प्रमाणभूत माना जाता हैं। उसे समझने में जस्टिनियन का अध्ययन मेरे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ।
इंग्लैड के कानून का अध्ययन मैं नौ महीनों में काफी मेंहनत के बाद समाप्त कर सका, क्योंकि ब्रुम के 'कॉमन लॉ' नामक बडे परन्तु दिलचस्प ग्रंथ का अध्ययन करने में ही काफी समय लग गया। स्नेल की 'इक्विटी' को रसपूर्वक पढ़ा, पर उसे समझने में मेरा दम निकल गया। व्हाइट और ट्यूडर के प्रमुख मुकदमों में से जो पढ़ने योग्य थे, उन्हे पढ़ने में मुझे मजा आया और ज्ञान प्राप्त हुआ। विलियम्स और एडवर्डज की स्थावर सम्पत्ति विषयक पुस्तक मैं रस पूर्वक पढ़ सका था। विलियम्स की पुस्तक तो मुझे उपन्यास सी लगी। उसे पढ़ते समय जी जरा भी नहीं ऊबा। कानून की पुस्तकों में इतनी रुचि के साथ हिन्दुस्तान आने के बाद मैंने मेंइन का 'हिन्दु लॉ' पढ़ा था। पर हिन्दुस्तान के कानून की बात यहाँ नहीं करुँगा।
परीक्षाये पास करके मैं 10 जून 1891 के दिन बारिस्टर कहलाया। 11 जून को ढ़ाई शिलिंग देकर इंग्लैड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया और 12 जून को हिन्दुस्तान के लिए रवाना हुआ।
पर मेरी निराशा और मेरे भय की कोई सीमा न थी। मैंने अनुभव किया कि कानून तो मैं निश्चय ही पढ़ चुका हूँ, पर ऐसी कोई भी चीज मैंने सीखी नहीं हैं जिससे मैं वकालत कर सकूँ।
मेरी इस व्यथा के वर्णन के लिए स्वतंत्र प्रकरण आवश्यक हैं।
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