जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
एक बार ये भाई मुझे ब्लैवट्स्की लॉज में भी ले गये। वहाँ मैंडम ब्लैवट्स्की के और मिसेज एनी बेसेंट के दर्शन कराये। मिसेज बेसेंट हाल ही थियॉसॉफिकल सोसाइटी में दाखिल हुई थी। इससे समाचार पत्रों में इस सम्बन्ध की जो चर्चा चलती थी, उसे मैं दिलचस्पी के साथ पढ़ा करता था। इन भाईयों ने मुझे सोसायटी में दाखिल होने का भी सुझाव दिया। मैंने नम्रता पूर्वक इनकार किया और कहा, 'मेरा धर्मज्ञान नहीं के बराबर हैं, इसलिए मैं किसी भी पंथ में सम्मिलित होना नहीं चाहता।' मेरा कुछ ख्याल हैं कि इन्हीं भाईयों के कहने से मैंने मैंडम ब्लैवट्स्की की पुस्तक 'की टु थियॉसॉफी' पढ़ी थी। उससे हिन्दू धर्म की पुस्तके पढने की इच्छा पैदा हुई और पादरियों के मुँह से सुना हुआ यह ख्याल दिल से निकल गया कि हिन्दू धर्म अन्धविश्वासो से भरा हुआ हैं।
इन्ही दिनों एक अन्नाहारी छात्रावास में मुझे मैंचेस्टर के एक ईसाई सज्जन मिले। उन्होंने मुझसे ईसाई धर्म की चर्चा की। मैंने उन्हें राजकोट का अपना संस्मरण सुनाया। वे सुनकर दुःखी हुए। उन्होंने कहा, 'मैं स्वयं अन्नाहारी हूँ। मद्यपान भी नहीं करता। यह सच है कि बहुत से ईसाई माँस खाते हैं और शराब पीते हैं ; पर इस धर्म में दोनो में से एक भी वस्तु का सेवन करना कर्तव्य रुप नहीं हैं। मेरी सलाह है कि आप बाइबल पढ़े।' मैंने उनकी सलाह मान ली। उन्ही ने बाइबल खरीद कर मुझे दी। मेरी कुछ ऐसा ख्याल हैं कि वे भाई खुद ही बाइबल बेचते थे। उन्होंने नक्शों और विष-सूची आदि से युक्त बाइबल मुझे बेची। मैंने उसे पढ़ना शुरू किया, पर मैं 'पुराना इकरार' (ओल्ड टेस्टामेंट) तो पढ़ ही न सका। 'जेनेसिस' (सृष्टि रचना) के प्रकरण के बाद तो पढते समय मुझे नींद ही आ जाती। मुझे याद हैं कि 'मैंने बाइबल पढ़ी हैं' यह कह सकने के लिए मैंने बिना रस के और बिना समझे दूसरे प्रकरण बहुत कष्ट पूर्वक पढ़े। 'नम्बर्स' नामक प्रकरण पढ़ते पढ़ते मेरा जी उचट गया था।
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