जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
जन्म
जान पड़ता है कि गाँधी-कुटुम्ब पहले तो पंसारी का धंधा करने वाला था। लेकिन मेरे दादा से लेकर पिछली तीन पीढ़ियों से वह दीवानगीरी करता रहा है। ऐसा मालूम होता हैं कि उत्तमचंद गाँधी अथवा ओता गाँधी टेकवाले थे। राजनीतिक खटपट के काऱण उन्हें पोरबन्दर छोड़ना पड़ा था, और उन्होंने जूनागढ़ राज्य में आश्रय लिया था। उन्होंने नवाब साहब को बायें हाथ से सलाम किया। किसी ने इस प्रकट अविनय का कारण पूछा, तो जवाब मिला : "दाहिना हाथ तो पोरबन्दर को अर्पित हो चुका है।"
ओता गाँधी के एक के बाद दूसरा यों दो विवाह हुए थे। पहले विवाह से उनके चार लड़के थे और दूसरे से दो। अपने बचपन को याद करता हूँ तो मुझे ख्याल नहीं आता कि ये भाई सौतेले थे। इनमें पाँचवें करमचन्द अथवा कबा गाँधी और आखिरी तुलसीदास गाँधी थे। दोनों भाइयों ने बारी-बारी से पोरबन्दर में दीवान का काम किया। कबा गाँधी मेरे पिताजी थे। पोरबन्दर की दीवानगीरी छोड़ने के बाद वे राजस्थानिक कोर्ट के सदस्य थे। बाद में राजकोट में और कुछ समय के लिए बीकानेर में दीवान थे। मृत्यु के समय वे राजकोट दरबार के पेंशनर थे।
कबा गाँधी के भी एक के बाद एक यों चार विवाह हुए थे। पहले दो से दो कन्यायें थी ; अन्तिम पत्नी पुतलीबाई से एक कन्या और तीन पुत्र थे। उनमें से अन्तिम मैं हूँ।
पिता कुटुम्ब-प्रेमी, सत्यप्रिय, शूर, उदार किन्तु क्रोधी थे। थोड़े विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका आखिरी ब्याह चालीसवें साल के बाद हुआ था। हमारे परिवार में और बाहर भी उनके विषय में यह धारणा थी कि वे रिश्वतखोरी से दूर भागते हैं और इसलिए शुद्ध न्याय करते हैं। राज्य के प्रति वे वफादार थे। एक बार प्रान्त के किसी साहब ने राजकोट के ठाकुर साहब का अपमान किया था। पिताजी ने उसका विरोध किया। साहब नाराज हुए, कबा गाँधी से माफी मांगने के लिए कहा। उन्होंने माफी मांगने से इनकार किया। फलस्वरूप कुछ घंटों के लिए उन्हें हवालात में भी रहना पड़ा। इस पर भी जब वे न डिगे तो अंत में साहब ने उन्हें छोड़ देने का हुक्म दिया।
पिताजी ने धन बटोरने का लोभ कभी नहीं किया। इस कारण हम भाइयों के लिए बहुत थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे।
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