जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
0 |
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
विलायती होने पर भी बम्बई के कटे-सिले कपड़े अच्छे अंग्रेज समाज में शोभा नहीं देगे, इस विचार से मैंने 'आर्मी और नेवी' के स्टोर में कपड़े सिलवाये। उन्नीस शिलिंग की (उस जमाने के लिहाज से तो यह कीमत बहुत ही कही जायेगी ) 'चिमनी' टोपी सिर पर पहनी। इतने से संतोष न हुआ तो बॉँण्ड स्ट्रीट, जहाँ शौकिन लोगों के कपड़े सिलते थे, दस पौण्ड पर बती रख कर शाम की पोशाक सिलवायी। भोले और बादशाही दिलवाले बड़े भाई से मैंने दोनो जेबों में लटकने लायक सोने की एक बढिया चेन मँगवायी और वह मिल भी गयी। बँधी-बँधाई टाई पहनना शिष्टाचार में शुमार न था, इसलिए टाई बाँधने की कला हस्तगत की। देश में आइना हजामत के दिन ही देखने को मिलता था, पर यहाँ तो बड़े आइने के सामने खड़े रहकर ठीक से टाई बाँधने में और बालो में सीधी माँग निकालने में रोज लगभग दस मिनट तो बरबाद होते ही थे। बाल मुलायम नहीं थे, इसलिए उन्हें अच्छी तरह मुडें हुए रखने के लिए ब्रश (झाडू ही समझिये! ) के साथ रोज लड़ाई चलती थी। और टोपी पहनते तथा निकालने समय हाथ तो मानो माँग को सहेजने के लिए सिर पर पहुँच ही जाता था। और बीच-बीच में, समाज में बैठे-बैठे, माँग पर हाथ फिराकर बालों को व्यवस्थित रखने की एक और सभ्य क्रिया बराबर ही रहती थी।
पर इतनी टीमटाप ही काफी न थी। अकेली सभ्य पोशाक से सभ्य थोड़े ही बना जा सकता था? मैंने सभ्यता के दूसरे कई बाहरी गुण भी जान लिये थे और मैं उन्हें सीखना चाहता था। सभ्य पुरुष को नाचना जानना चाहिये। उसे फ्रेच अच्छी तरह जान लेनी चाहिये, क्योंकि फ्रेंच इंग्लैंड के पड़ोसी फ्रांस की भाषा थी, और यूरोप की राष्ट्रभाषा भी थी। और, मुझे यूरोप में घुमने की इच्छा थी। इसके अलावा, सभ्य पुरुष को लच्छेदार भाषण करना भी आना चाहिये। मैंने नृत्य सिखने का निश्चय किया। एक सत्र में भरती हुआ। एक सत्र के करीब तीन पौण्ड जमा किये। कोई तीन हफ्तों में करीब छह सबक सीखे होगे। पैर ठीक से तालबद्ध पड़ते न थे। पियानो बजता था, पर क्या कह रहा हैं, कुछ समझ में न आता था। 'एक, दो, एक' चलता, पर उनके बीच का अन्तर तो बाजा ही बताता था, जो मेरे लिए अगम्य था।
|