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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


मेरे प्रस्ताव में खिलाफत और पंजाब के अन्याय को ध्यान में रखकर ही असहयोग की बात कही गयी थी। पर श्री विजयराधवाचार्य को इसमे कोई दिलचस्पी मालूम न हुई। उन्होंने कहा, 'यदि असहयोग ही कराना है, तो अमुक अन्याय के लिए ही क्यों किया? स्वराज्य का अभाव बड़े -से - बडा अन्याय है। अतएव उसके लिए असहयोग किया जा सकता है।' मोतीलालजी भी स्वराज्य की माँग को प्रस्ताव में दाखिल कराना चाहते थे। मैंने तुरन्त ही इस सूचना को स्वीकार कर लिया और प्रस्ताव में स्वराज्य की माँग भी सम्मिलित कर ली। विस्तृत, गंभीर और कुछ तींखी चर्चाओं के बाद असहयोग का प्रस्ताव पास हुआ। मोती लाल जी उसमें सबसे पहले सम्मिलित हुए। मेरे साथ हुई उनकी मीठी चर्चा मुझे अभी तक याद है। उन्होंने कुछ शाब्दिक परिवर्तन सुझाये थे, जिन्हें मैंने स्वीकार कर लिया था। देशबन्धु को मना लेने का बीड़ा उन्होंने उठाया था। देशबन्धु का हृदय असहयोग के साथ था, पर बुद्धि उनसे कर रही थी कि असहयोग को जनता ग्रहण नहीं करेगी। देशबन्धु और लालाजी ने असहयोग के प्रस्ताव को पूरी तरह तो नागपुर में स्वीकार किया। इस विशेष अवसर पर लोकमान्य की अनुपस्थिति मेरे लिए बहुत दुःखदायक सिद्ध हुई। आज भी मेरा मत है कि वे जीवित होते, तो कलकत्ते की घटना का स्वागत करते। पर वैसा न होता और वे विरोध करते, तो भी मुझे अच्छा ही लगता। मुझे उससे कुछ सीखने को मिलता। उनके साथ मेरे मतभेद सदा ही रहे, पर वे सब मीठे थे। उन्होंने मुझे हमेशा यह मानने का मौका दिया था कि हमारे बीच निकट का सम्बन्ध है। यह लिखते समय उनके स्वर्गवास का चित्र मेरे सामने खड़ा हो रहा है। मेरे साथी पटवर्धन ने आधी रात को मुझे टेलीफोन पर उनके अवसान का समाचार दिया था। उसी समय मैंने साथियो से कहा था, 'मेरे पास एक बड़ा सहारा था, जो आज टूट गया।' उस समय असहयोग का आन्दोलन पूरे जोर से चल रहा था। मैं उनसे उत्साह और प्रेरणा पाने की आशा रखता था। अन्त में जब असहयोग पूरी तरह मूर्तिमंत हुआ, तब उसके प्रति उनका रुख क्या रहा होता सो तो भगवान जाने, पर इतना मैं जानता हूँ कि राष्ट्र के इतिहास की उस महत्त्वपूर्ण घड़ी में उनकी उपस्थिति का अभाव सब को खटक रहा था।

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