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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


लेकिन अब मैं होशियारी पकड़ने लगा था। अभी पढ़ाई शुरू नहीं हुई थी। मुश्किल से समाचार पत्र पढ़ने लगा था। यह भाई शुक्ल का प्रताप हैं। हिन्दुस्तान में मैंने समाचार पत्र कभी पढ़े नहीं थे। पर बराबर पढ़ते रहने के अभ्यास से उन्हें पढ़ते रहने का शौक पैदा कर सका था। 'डेली न्यूज़', 'डेली टेलीग्राफ' और 'पेलमेल गजेट' इन पत्रों को सरमय निगाह से देख जाता था। पर शुरु-शुरु में तो इसमें मुश्किल से एक घंटा खर्च होता होगा।

मैंने घुमना शुरू किया। मुझे निरामिष अर्थात अन्नाहार देने वाले भोजनगृह की खोज करनी थी। घर की मालकिन में भी कहा था कि खास लंदन में ऐसे गृह मौजूद हैं। मैं रोज दस-बारह मील चलता था। किसी मामूली से भोजनगृह में जाकर पेटभर रोटी खा लेता था। पर उससे संतोष न होता था। इस तरह भटकता हुआ एक दिन मैं फैरिंग्डन स्ट्रीट पहुँचा और वहाँ 'वेजिटेरियन रेस्टराँ' (अन्नाहारी भोजनालय) का नाम पढा। मुझे वह आनन्द हुआ, जो बालको को मनचाही चीज मिलने से होती हैं। हर्ष-विभोर होकर अन्दर घुसने से पहले मैंने दरवाजे के पास शीशेवाली खिड़की में बिक्री की पुस्तकें देखी। उनमे मुझे सॉल्ट की 'अन्नाहार की हिमायत' नामक पुस्तक दीखी। एक शिलिंग में मैंने वह पुस्तक खरीद ली और फिर भोजन करने बैठा। विलायत में आने के बाद यहाँ पहली बार भरपेट भोजन मिला। ईश्वर नें मेरी भूख मिटायी।

सॉल्ट की पुस्तक पढ़ी। मुझ पर उसकी अच्छी छाप पड़ी। इस पुस्तक को पढ़ने के दिन से मैं स्वेच्छापूर्वक, अन्नाहार में विश्वास करने लगा। माता के निकट की गयी प्रतिज्ञा अब मुझे आनन्द देने लगी। और जिस तरह अब तक मैं यह मानता था कि सब माँसाहारी बने तो अच्छा हो, और पहले केवल सत्य की रक्षा के लिए और बाद में प्रतिज्ञा-पालन के लिए ही मैं माँस-त्याग करता था और भविष्य में किसी दिन स्वयं आजादी से, प्रकट रुप में, माँस खाकर दूसरों को खानेवालों के दल में सम्मिलित करने की अमंग रखता था, इसी तरह अब स्वयं अन्नाहारी रहकर दूसरों को वैसा बनाने का लोभ मुझ में जागा।

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