जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
किन्तु अंग्रेजी द्वारा जनता को सत्याग्रह की शिक्षा कैसे दी जा सकती थी? गुजरात मेरे कार्य का मुख्य क्षेत्र था। इस समय भाई इन्दुलाल याज्ञिक उमर सोबानी और शंकरलाल बैकर की मंडली में थे। वे 'नवजीवन' नामक गुजराती मासिक चला रहे थे। उसका खर्च भी उक्त मित्र पूरा करते थे। भाई इन्दुलाल और उन मित्रों ने यह पत्र मुझे सौंप दिया और भाई इन्दुलाल ने इसमे काम करना भी स्वीकार किया। इस मासिक को साप्ताहिक बनाया गया।
इस बीच 'क्रॉनिकल' फिर जी उठा, इसलिए 'यंग इंडिया' पुनः साप्ताहिक हो गया और मेरी सलाह के कारण उसे अहमदाबाद ले जाया गया। दो पत्रो को अलग-अलग स्थानो से निकालने में खर्च अधिक होता था और मुझे अधिक कठिनाई होती थी। 'नवजीवन' तो अहमदाबाद से ही निकलता था। ऐसे पत्रो के लिए स्वतंत्र छापाखाना होना चाहिए, इसका अनुभव मुझे 'इंडियन ओपीनियन' के सम्बन्ध में हो चुका था। इसके अतिरिक्त यहाँ के उस समय के अखबारों के कानून भी ऐसे थे कि मैं जो विचार प्रकट करना चाहता था, उन्हें व्यापारिक दृष्टि से चलनेवाले छापखानो के मालिक छापने में हिचकिचाते थे। अपना स्वतंत्र छापखाना खड़ा करने का यह भी एक प्रबल कारण था और यह काम अहमदाबाद में ही सरलता से हो सकता था। अतएव 'यंग इंडिया' को अहमदाबाद ले गये।
इन पत्रो के द्वारा मैंने जनता को यथाशक्ति सत्याग्रह की शिक्षा देना शुरू किया। पहले दोनों पत्रो की थोड़ी ही प्रतियाँ खपती थी। लेकिन बढ़ते-बढ़ते वे चालिस हजार के आसपास पहुँच गयी। 'नवजीवन' के ग्राहक एकदम बढे, जब कि 'यंग इंडिया' के धीरे-धीरे बढे। मेरे जेल जाने के बाद इसमे कमी हुई और आज दोनों की ग्राहक संख्या 8000 से नीचे चली गयी है।
इन पत्रो में विज्ञापर न लेने का मेरा आग्रह शुरू से ही था। मैं मानता हूँ कि इससे कोई हानि नहीं हुई और इस प्रथा के कारण पत्रो के विचार-स्वातंत्र्य की रक्षा करने में बहुत मदद मिली। इस पत्रो द्वारा मैं अपनी शान्ति प्राप्त कर सका। क्योंकि यद्यपि मैं सविनय कानून-भंग तुरन्त ही शुरू नहीं कर सका, फिर भी मैं अपने विचार स्वतंत्रता-पूर्वक प्रकट कर सका, जो लोग सलाह और सुझाव के लिए मेरी ओर देख रहे थे, उन्हे मैं आश्वासन दे सका। और, मेरा ख्याल है कि दोनों पत्रो ने उस कठिन समय में जनता की अच्छी सेवा की और फौजी कानून के जुल्म को हलका करने में हाथ बंटाया।
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