जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
खेड़ा की लड़ाई का अंत
इस लड़ाई का अन्त विचित्र रीति से हुआ। यह तो साफ था कि लोग थक चुके थे। जो ढृढ रहे थे, उन्हे पूरी तरह बरबाद होने देने में संकोच हो रहा था। मेरा झुकाव इस ओर था कि सत्याग्रह ते अनुरुप इसकी समाप्ति का कोई शोभापद मार्ग निकल आये, तो उसे अपनाना ठीक होगा। ऐसा एक अनसोचा उपाय सामने आ गया। नडियाद तालुके के तहसीलदार ने संदेशा भेजा कि अगर अच्छी स्थितिवाले पाटीदार लगान अदा कर दे, तो गरीबो का लगान मुलतवी रहेगा। इस विषय में मैंने लिखित स्वीकृति माँगी और वह मिल गयी। तहसीलदार अपनी तहसील का ही जिम्मेदारी ले सकता था। सारे जिले की जिम्मेदारी तो कलेक्टर ही ले सकता था। इसलिए मैंने कलेक्टर से पूछा। उसका जवाब मिला कि तहसीलदार ने जो कहा है, उसके अनुसार तो हुक्म निकल ही चुका है। मुझे इसका पता नहीं था। लेकिन यदि ऐसा हुक्म निकल चुका हो, तो माना जा सकता है कि लोगों की प्रतिज्ञा का पालन हुआ। प्रतिज्ञा में यही वस्तु थी, अतएव इस हुक्म से हमने संतोष माना।
फिर भी इस प्रकार की समाप्ति से हम प्रसन्न न हो सके। सत्याग्रह की लड़ाई के पीछे जो एक मिठास होती है, वह इसमे नहीं थी। कलेक्टर मानता था कि उसने कुछ किया ही नहीं। गरीब लोगों को छोड़ने की बात कहीं जाती थी, किन्तु वे शायद ही छूट पाये। जनता यह करने का अधिकार आजमा न सकी कि गरीब में किसकी गिनती की जाय। मुझे इस बात का दुःख था कि जनता में इस प्रकार की शक्ति रह नहीं गयी थी। अतएव लड़ाई की समाप्ति का उत्सव तो मनाया गया, पर इस दृष्टि से मुझे वह निस्तेज लगा। सत्याग्रह का शुद्ध अन्त तभी माना जाता है, जब जनता में आरम्भ की अपेक्षा अन्त में अधिक तेज और शक्ति पायी जाय। मैं इसका दर्शन न कर सका। इतने पर भी इस लड़ाई के जो अदृश्य परिणाम निकले, उसका लाभ तो आज भी देखा जा सकता है और उठाया जा रहा है। खेड़ा की लड़ाई से गुजरात के किसान-समाज की जागृति का और उसकी राजनीतिक शिक्षा का श्रीगणेश हुआ।
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