जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
जैसे-तैसे मुझे अनुभव प्राप्त होता गया वैस-वैसे मैंने देखा कि चम्पारन में ठीक से काम करना हो तो गाँवो में शिक्षा का प्रवेश होना चाहिये। लोगों को अज्ञान दयनीय था। गाँवो के बच्चे मारे-मारे फिरते थे अथवा माता-पिता दो या तीन पैसे की आमदनी के लिए उनसे सारे दिन नील के खेतो में मजदूरी करवाते थे। उन दिनो वहाँ पुरूषो की मजदूरी दस पैसे से अधिक नहीं थी। स्त्रियो की छह पैसे और बालकों की तीन पैसे थी। चार आने की मजदूरी पाने वाला किसान भाग्यशाली समझा जाता था।
साथियो से सलाह करके पहले तो छह गाँवो में बालकों के लिए पाठशाला खोलने का निश्चय किया। शर्त यह थी कि उन गाँवो के मुखिया मकान और शिक्षक का भोजन व्यय दे, उसके दूसरे खर्च की व्यवस्था हम करे। यहाँ के गाँवो में पैसे की विपुलता नहीं थी, पर अनाज वगैरा देने की शक्ति लोगों में थी। इसलिए लोग कच्चा अनाज देने को तैयार हो गये थे
महान प्रश्न यह था कि शिक्षक कहाँ से लाये जाये? बिहार में थोडा वेतन लेने वाले अथवा कुछ न लेनेवाले अच्छे शिक्षको का मिलना कठिन था। मेरी कल्पना यह थी कि साधारण शिक्षको के हाथ में बच्चो को कभी न छोडना चाहिये। शिक्षक को अक्षर-ज्ञान चाहे थोड़ा हो, पर उसमें चरित्र बल तो होना ही चाहिये।
इस काम के लिए मैंने सार्वजनिक रूप से स्वयंसेवको की माँग की। उसके उत्तर में गंगाधरराव देशपांडे ने बाबासाहब सोमण और पुंडलीक को भेजा। बम्बई से अवन्तिकाबाई गोखले आयी। दक्षिण से आनन्दीबाई आयी। मैंने छोटेलाल, सुरेन्द्रनाथ तथा अपने लड़के देवदास को बुला लिया। इसी बीच महादेव देसाई और महादेव देसाई और नरहरि परीख मुझे मिल गये थे। महादेव देसाई की पत्नी दुर्गाबहन और नरहरि परीख की पत्नी मणिबहन भी आयी। मैंने कस्तूरबाई को भी बुला लिया था। शिक्षको और शिक्षिकाओ का इतना संघ काफी था। श्रीमति अवन्तिकाबाई और आनन्दीबाई की गिनती तो शिक्षितो में हो सकती थी, पर मणिबहन परीख और दुर्गाबहन को सिर्फ थोडी-सी गुजराती आती थी। कस्तूरबाई की पढाई तो नहीं के बराबर ही थी। ये बहने हिन्दी-भाषी बच्चो को किसी प्रकार पढ़ाती?
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