जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
शुरू-शुरू के दिनो में हमारी रहन-सहन विचित्र थी और मेरे लिए वह रोज के विनोद का विषय बन गयी थी। वकील-मंडल में हर एक का अपना रसोइयो था और हरएक के लिए अलग अलग रसोई बनती थी। वे रात बारह बजे तक भी भोजन करते थे। ये सब महाशय रहते तो अपने खर्च से ही थे। परन्तु मेरे लिए अनकी यह रहन-सहन उपाधि रूप थी। मेरे और साथियो के बीच इतनी मजबूत प्रेमगांठ बंध गयी थी कि हममे कभी गलतफहमी हो ही नहीं सकती थी। वे मेरे शब्दबाणो को प्रेम-पूर्वक सहते थे। आखिर यह तय हुआ कि नौकरो को छुट्टी दे दी जाय। सब एक साथ भोजन करे और भोजन के नियमों का पालन करे। सब निरामिषाहारी नहीं थे और दो रसोईघर चलाने से खर्च बढ़ता था। अतएव निश्चय हुआ कि निरामिष भोजन ही बनाया जाये और एक ही रसोईघर रखा जाये। भोजन भी सादा रखने का आग्रह था। इससे खर्च में बहुत बहुत हुई, काम करने की शक्ति बढ़ी और समय भी बचा।
अधिक शक्ति की बहुत आवश्यकता थी, क्योंकि किसानो के दल-के-दल अपनी कहानी लिखाने के लिए आने लगे थे। कहानी लिखाने वालो के साथ भीड़ तो रहती ही थी। इससे मकान का आहाता और बगीचा सहज ही भर जाता था। मुझे दर्शानार्थियो से सुरक्षित रखने के लिए साथी भारी प्रयत्न करते और विफल हो जाते। एक निश्चित समय पर मुझे दर्शन देने के बाहर निकाने सिवा कोई चारा न रह जाता था। कहानी लिखनेवाले भी पाँच-सात बराबर बने ही रहते थे, तो भी दिन के अन्त में सबके बयान पूरे न हो पाते थे। इतने सारे बयानो की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी बयान लेने से लोगों को संतोष होता था और मुझे उनकी भावना का पता चलता था।
कहानी लिखनेवालो को कुछ नियमों का पालन करना पड़ता था। जैसे, हरएक किसान से जिरह की जाय। जिरह में जो उखड़ जाये, उसका बयान न लिया जाय। जिसकी बात मूल में ही बेबुनियाद मालूम हो, उसके बयान न लिखे जाये। इस तरह के नियमों के पालन से यद्यपि थोड़ा अधिक समय खर्च होता था, फिर भी बयान बहुत सच्चे और साबित हो सकने वाले मिलते थे।
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