जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
0 |
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
दुसरी ओर सारे हिन्दुस्तान को सत्याग्रह का अथवा कानून के सविनय भंग का पहना स्थानीय पदार्थ-पाठ मिला। अखबारों में इसकी खूब चर्चा हुई और मेरी जाँच को अनपेक्षित रीति से प्रसिद्धि मिल गयी।
अपनी जाँच के लिए मुझे सरकार की ओर से तटस्थता की तो आवश्यकता थी, परन्तु समाचारपत्रो की चर्चा की और उनके संवाददाताओ की आवश्यकता न थी। यही नहीं बल्कि उनकी आवश्यकता से अधिक टीकाओ से और जाँच की लम्बी-चौड़ी रिपोर्टो से हानि होने का भय था। इसलिए मैंने खास-खास अखबारों के संपादको से प्रार्थना की थी कि वे रिपोर्टरो को भेजना का खर्च न उठाये, जिनता छापने की जरूरत होगी उतना मैं स्वयं भेजता रहूँगा और उन्हें खबर देता रहूँगा।
मैं यह समझता था कि चम्पारन के निलहे खूब चिढ़े हुए है। मैं यह भी समझता था कि अधिकारी भी मन में खुश न होगे, अखबारों में सच्ची-झूठी खबरो के छपने से वे अधिक चिढेंगे। उनकी चिढ का प्रभाव मुझ पर तो कुछ नहीं पड़ेगा, पर गरीब, डरपोक रैयत पर पड़े बिना न रहेगा। ऐसा होने से जो सच्ची स्थिति मैं जानना चाहता हूँ, उसमें बाधा पड़ेगी। निलहो की तरफ से विषैला आन्दोलन शुरू हो चुका था। उनकी ओर से अखबारों में मेरे और साथियो के बारे में खूब झूठा प्रचार हुआ, किन्तु मेरे अत्यन्त सावधान रहने से और बारीक-से-बारीक बातो में भी सत्य पर ढृढ रहने की आदत के कारण उनके तीर व्यर्थ गये।
निलहो ने ब्रजकिशोरबाबू की अनेक प्रकार से निन्दा करने में जरा भी कसर नहीं रखी। पर ज्यो-ज्यो वे निन्दा करते गये, ब्रजकिशोरबाबू की प्रतिष्ठा बढ़ती गयी।
ऐसी नाजुक स्थिति में मैंने रिपोर्टरो को आने के लिए जरा भी प्रोत्साहित नहीं किया, न नेताओं को बुलाया। मालवीयजी ने मुझे कहला भेजा था कि, 'जब जरूरत समझे मुझे बुला ले। मैं आने को तैयार हूँ।' उन्हें भी मैंने तकलीफ नहीं दी। मैंने इस लड़ाई को कभी राजनीतिक रुप धारण न करने दिया। जो कुछ होता था उसकी प्रासंगिक रिपोर्ट मैं मुख्य-मुख्य समाचारपत्रो को भेज दिया करता था। राजनीतिक काम करने के लिए भी जहाँ राजनीति की गुंजाइश न हो, वहाँ उसे राजनीतिक स्वरूप देने से पांड़े को दोनों दीन से जाना पड़ता है, और इस प्रकार विषय का स्थानान्तर न करने से दोनों सुधरते है। बहुत बार के अनुभव से मैंने यह सब देख लिया था। चम्पारन की लड़ाई यह सिद्ध कर रही थी कि शुद्ध लोकसेवा में प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रीत से राजनीति मौजूद ही रहती है।
|