जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
यात्रियो के गले यह बात नहीं उतरी। वे मुझ पर अधिक तरस खाने लगे और आपस में बाते करने लगे कि निर्दोष आदमियो को इस तरह तंग क्यों किया जाता है?
खुफिया पुलिसवालो की तो मुझे कोई तकलीफ नहीं मालूम हुई, पर रेल की भीड़ की तकलीफ का मुझे लाहौर से दिल्ली के बीच कड़वे-से-कड़वे अनुभव हुआ। कराची से कलकत्ते मुझे लाहौर के रास्त जाना था। लाहौर में ट्रेन बदलनी थी। वहाँ की ट्रेन में मेरी कही दाल गलती नहीं थी। यात्री जबरदस्ती अपना रास्ता बना लेते थे। दरबाजा बन्द होता तो खिड़की में से अन्दर घुस जाते थे। मुझे कलकत्ते निश्चित तारीख पर पहुँचना था। ट्रेन खो देता तो मैं कलकत्ते पहुँच न पाता। मैं जगह मिलने की आशा छोड़ बैठा था। कोई मुझे अपने डिब्बे में आने न देता था। आखिर एक मजदूर ने मुझे जगह ढूंढते देखकर कहा, 'मुझे बारह आने दो, तो जगह दिला दूँ।' मैंने कहा, 'मुझे जगह दिला दो, तो जरूर दूँगा।' बेचारा मजदूर यात्रियो से गिडगिड़ाकर कह रहा था, पर कोई मुझे लेने को तैयार न होता था। ट्रेन छूटने ही वाली थी कि एक डिब्बे के कुछ यात्रियो ने कहा, 'यहाँ जगह नहीं है, लेकिन इसके भीतर घुसा सकते हो तो घुसा दो। खड़ा रहना होगा।' मजदूर मेरी ओर देखकर बोला, 'क्यों जी?'
मैंने 'हाँ' कहा और उसने मुझे उठाकर खिड़की में अन्दर डाल दिया। मैं अन्दर घुसा और उस मजदूर में बारह आने कमा लिये।
मेरी रात मुश्किल से बीती। दूसरे यात्री ज्यो-त्यो करके बैठ गये। मैं ऊपरवाली बैठक की जंजीर पकड़कर दो घंटे खड़ा ही रहा। इस बीच कुछ यात्री मुझे धमकाते ही रहते थे, 'अजी, अब तक क्यों नहीं बैठते हो?' मैंने बहुतेरा समझाया कि कही जगह नहीं है। पर उन्हें तो मेरा खड़ा रहना ही सहन नहीं हो रहा था, यद्यपि वे ऊपर की बैठकों पर आराम से लम्बे होकर पड़े थे। बार-बार मुझे परेशान करते थे। जितना मुझे परेशान करते थे, उतनी ही शांति से मैं उन्हें जवाब देता था। इससे वे कुछ शान्त हुए। मेरा नाम-धाम पूछा। जब मुझे नाम बतलाना पड़ा तब वे शरमाये। मुझसे माफा माँगी और मेरे लिए अपनी बगल में जगह कर दी। 'सब्र का फल मीठा होता है ' कहावत की मुझे याद आयी। मैं बहुत थक गया था। मेरा सिर घूम रहा था। बैठने के लिए जगह की जब सचमुच जरूरत थी तब ईश्वर ने दिला दी।
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