जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
रंगून पहुँचने पर मैंने एजेंट को सारा हाल लिख भेजा। लौटते समय भी मैं डेक पर ही आया। पर इस पत्र और डॉ. मेंहता के प्रबंध के फलस्वरुप अपेक्षाकृत अधिक सुविधा से आया।
मेरे फलाहार की झंझट तो यहाँ ङी अपेक्षाकृत अधिक ही रहती थी। डॉं. मेंहता के साथ ऐसा सम्बन्ध था कि उनके घर को मैं अपनी ही घर समझ सकता था। इससे मैंने पदार्था पर तो अंकुश रख लिया था, लेकिन उनकी कोई मर्यादा निश्चित नहीं की थी। इस कारण तरह-तरह का जो मेंवा आता, उसका मैं विरोध न करता था। नाना प्रकार की वस्तुएँ आँखो और जीभ को रुचिकर लगती थी। खाने का कोई निश्चित समय नहीं था। मैं स्वयं जल्दी खा लेना पसन्द करता था, इसलिए बहुत देर तो नहीं होती थी। फिर भी रात के आठ नौ तो सहज ही बज जाते थे।
सन् 1915 में हरद्वार में कुम्भ का मेला था। उसमें जाने की मेरी कोई खास इच्छा नहीं थी। लेकिन मुझे महात्मा मुंशीराम के दर्शनो के लिए जरूर जाना था। कुम्भ के अवसर पर गोखले के भारत-सेवक समाज ने एक बड़ी टुकड़ी भेजी थी। उसका प्रबन्ध श्री हृदयनाथ कुंजरू के जिम्मे था। स्व. डॉ. देव भी उसमें थे। उनका यह प्रस्ताव था कि इस काम में मदद करने के लिए मैं अपनी टुकड़ी भी ले जाऊँ। शांतिनिकेतन वाली टुकड़ी को लेकर मगनलाल गाँधी मुझ से पहले हरद्वार पहुँच गये थे। रंगून से लौटकर मैं भी उनसे जा मिला।
कलकत्ते से हरद्वार पहुँचने में खूब परेशानी उठानी पड़ी। गाडी के डिब्बो में कभी कभी रोशनी तक नहीं होती थी। सहारनपुर से तो यात्रियो को माल के या जानवरो के डिब्बो में ठूँस दिया गया था। खुले, बिना छतवाले डिब्बो पर दोपहर का सूरज तरता था। नीचे निरे लोहे को फर्श था। फिर घबराहट का क्या पूछना? इतने पर भी श्रद्धालु हिन्दू अत्यन्त प्यासे होने पर भी 'मुसलमान पानी' के आने पर उसे कभी न पीते थे। 'हिन्दू पानी' की आवाज आती तभी वे पानी पीते। इन्हीं श्रद्धालु हिन्दुओं को डॉक्टर दवा में शराब दे, माँस का सत दे अथवा मुसलमान या ईसाई कम्पाउन्डर पानी दे, तो उसे लेने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता और न पूछताछ करने की जरूरत होती है।
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