जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
घर लौटते हुए मैं विचारो के भँवर में पड़ गया। बहुमत से दाखिल होने का प्रंसग आने पर क्या वैसा करना मेरे लिए इष्च होगा? क्या वह गोखले के प्रति मेरी वफादारी मानी जायगी? अगर मेरे विरुद्ध मत प्रकट हो तो क्या उस दशा में मैं सोयायटी की स्थिति को नाजुक बनाने का निमित्त न बनूँगा? मैंने स्पष्ट देखा कि जब तक सोसायटी के सद्स्यो में मुझे दाखिल करने के बारे में मतभेद रहे, तब तक स्वयं मुझी को दाखिल होने का आग्रह छोड़ देना चाहिये और इस प्रकार विरोधी पक्ष को नाजुक स्थिति में पड़ने से बचा लेना चाहिये। उसी में सोसायटी और गोखले के प्रति मेरी वफादारी है। ज्यो ही मेरी अन्तरात्मा में इस निर्णय का उदय हुआ, त्यो ही मैंने शास्त्री को पत्र लिखा कि वे मेरे प्रवेश के विषय में सभा बुलाये ही नहीं। विरोध करने वालो को मेरा यह निश्चय बहुत पसन्द आया। वे धर्म संकट से बच गये। उनके और मेरे बीच की स्नेहगाँठ अधिक ढृढ हो गयी और सोसायटी में प्रवेश पाने की अपनी अर्जी को वापस लेकर मैं सोसायटी का सच्चा सदस्य बना।
अनुभव से मैं देखता हूँ कि मेरा प्रथा के अनुसार सोसायटी का सदस्य न बनना ही उचित था, और जिन सदस्यों में मेरे प्रवेश का विरोध किया था, उनका विरोध वास्तविक था। अनुभव ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनके और मेरे सिद्धान्तों के बीच भेद था।
किन्तु मतभेद को जान चुकने पर भी हमारे बीच आत्मा का अन्तर कभी नहीं पड़ा, खटाई कभी पैदा न हुई। मतभेद के रहते भी हम परस्पर बंधु और मित्र रहे है। सोसायटी का स्थान मेरे लिए यात्रा का धाम रहा है। लौकिक दृष्टि से मैं भले ही उसका सदस्य नहीं बना, पर आध्यात्मिक दृष्टि से को मैं उसका सदस्य रहा ही हूँ। लौकिक सम्बन्ध की अपेक्षा आध्यात्मिक सम्बन्ध अधिक मूल्यवान है। आध्यत्मिक सम्बन्ध से रहित लौकिक सम्बन्ध प्राणहीन देह के समान है।
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