जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
पुराने अनुभवो के कारण हो या अन्य किसी कारण से हो, पर बात यह थी कि अंग्रेज यात्रियो और हम लोगों के बीच मैंने मैंने जो अन्तर यहाँ देखा, वह दक्षिण अफ्रीका से आते हुए भी नहीं देखा था। अन्तर तो वहाँ भी था, पर यहाँ उससे कुछ भिन्न प्रकार का मालूम हुआ। किसी किसी अंग्रेज के साथ मेरी बाच होती थी, किन्तु वे 'साहब सलाम' तक ही सीमित रहती थी। हृदय की भेट किसी से नहीं हुई। दक्षिण अफ्रीका के जहाजो में और दक्षिण अफ्रीका में हृदय की भेटे हो सकी थी। इस भेद का कारण मैंने तो यही समझा कि इन जहाजो पर अंग्रेज के मन में जाने अनजाने यह ज्ञान काम कर रहा था कि 'मैं शासक हूँ' और हिन्दुस्तानी के मन में यह ज्ञान काम कर रहा था कि 'मैं विदेशी शासन के अधीन हूँ।'
मैं ऐसे वातावरण से जल्दी छूटने और स्वदेश पहुँचने के लिए आतुर हो रहा था। अदन पहुँचने पर कुछ हद तक घर पहुँच जाने जैसा लगा। अदनवालो के साथ हमारा खास सम्बन्ध दक्षिण अफ्रीका में ही हो गया था, क्योंकि भाई कैकोबाद काबसजी दीनशा डरबन आ चुके थे और उनसे तथा उनकी पत्नी से मेरा अच्छा परिचय हो चुका था।
कुछ ही दिनो में हम बम्बई पहुँचे। जिस देश में मैं सन् 1905 में वापस आने की आशा रखता था, उसमें दस बरस बाद तो वापस आ सका, यह सोचकर मुझे बहुत आनन्द हुआ। बम्बई में गोखले ने स्वागत-सम्मेलन आदि की व्यवस्था कर ही रखी थी। उनका स्वास्थ्य नाजुक था, फिर भी वे बम्बई आ पहुँचे थे। मैं इस उमंग के साथ बम्बई पहँचा था कि उनसे मिलकर और अपने को उनके जीवन में समाकर मैं अपना भार उतार डालूँगा। किन्तु विधाता ने कुछ दूसरी ही रचना कर रखी थी।
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