जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
दूध के त्याग में धर्म-भावना की स्थान मुख्य था। कलकत्ते में गाय-भैस पर होने वाली दुष्ट क्रियाएँ मेरे सामने मूर्तिमंत थी। माँस की तरह पशु का दूध भी मनुष्य का आहार नहीं है, यह बात भी मेरे सामने थी। इसलिए दूध के त्याग पर डटे रहने का निश्चय करके मैं सबेरे उठा। इतने निश्चय से मेरा मन बहुत हलका हो गया। गोखले का डर था, पर मुझे यह विश्वास था कि वे मेरे निश्चय का आदर करेंगे।
शाम को नेशनल लिबरल क्लब में हम उनसे मिलने गये। उन्होंने तुरन्त ही प्रश्न किया, 'क्यों डॉक्टर का कहना मानने का निश्चय कर लिया न?'
मैंने धीरे से जवाब दिया, 'मैं सब कुछ करूँगा, किन्तु आप एक चीज का आग्रह न कीजिये। मैं दूध और दूध के प्रदार्थ अथवा माँसाहार नहीं लूँगा। उन्हें न लेने से देहपात होता हो, तो वैसा होने देने में मुझे धर्म मालूम होता है।'
गोखले ने पूछा, 'यह आपका अंतिम निर्णय है?'
मैंने जवाब दिया, 'मेरा ख्याल है कि मैं दूसरा जवाब नहीं दे सकता। मैं जानता हूँ कि इससे आपको दुःख होगा, पर मुझे क्षमा कीजिये।'
गोखले में कुछ दुःख से परन्तु अत्यन्त प्रेम से कहा, 'आपका निश्चय मुझे पसन्द नहीं है। इसमे मैं धर्म नहीं देखता। पर अब मैं आग्रह नहीं करूँगा।' यह कहकर वे डॉ. जीवराज मेंहता की ओर मुड़े और उनसे बोले, 'अब गाँधी को तंग मत कीजिये। उनकी बतायी हुई मर्यादा में उन्हे जो दिया जा सके, दीजिये।'
डॉक्टर में अप्रसन्नता प्रकट की, लेकिन वे लाचार हो गये। उन्होंने मुझे मूंग का पानी लेने की सलाह दी औऱ उसमें हींग का बघार देने को कहा। मैंने इसे स्वीकार कर लिया। एक-दो दिन वह खुराक ली। उससे मेरी तकलीफ बढ़ गयी। मुझे वह मुआफिक नहीं आयी। अतएव मैं फिर फलाहार पर आ गया। डॉक्टर ने बाहरी उपचार तो किये ही। उससे थोडा आराम मिलता था। पर मेरी मर्यादाओ से वे बहुत परेशान थे। इस बीच लंदन का अक्तूबर-नवम्बर का कुहरा सहन न कर सकने के कारण गोखले हिन्दुस्तान जाने को रवाना हो गये।
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