जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
छोटा-सा सत्याग्रह
इस प्रकार धर्म समझकर मैं युद्ध में सम्मिलित तो हुआ, पर मेरे नसीब में न सिर्फ उसमें सीधे हाथ बँटाना नहीं आया, बल्कि ऐसे नाजुक समय में सत्याग्रह करने की नौबत आ गयी।
मैं लिख चुका हूँ कि जब हमारे नाम मंजूर हुए और रजिस्टर में दर्ज किये गये, तो हमें पूरी कवायद सिखाने के लिए एक अधिकारी नियुक्त किया गया। हम सब का ख्याल यह था कि यह अधिकारी युद्ध की तामील देने भर के लिए हमारे मुखिया थे, बाकी सब मामलो में दल का मुखिया मैं था। मैं अपने साथियो के प्रति जिम्मेदार था और साथी मेरे प्रति, अर्थात् हमारा ख्याल यह था कि अधिकारी को सारा काम मेरे द्वारा लेना चाहिये। पर जैसे पूत के पाँव पालने में नजर आते है, वैसे ही उस अधिकारी की दृष्टि पहले ही दिन से हमे कुछ और ही मालूम हुई। साराबजी बड़े होशियार थे। उन्होंने मुझे सावधान किया, 'भाई, ध्यान रखिये। ऐसा प्रतीत होता है कि ये सज्जन यहां अपनी जहाँगीरी चलाना चाहते है। हमे उनके हुक्म की जरूरत नहीं। हम उन्हें शिक्षक मानते है। पर मैं तो देखता हूँ कि ये जो नौजवान आये है, वे मानो हम पर हुक्म चलाने आये है।' ये नौजवान ऑक्सफर्ड के विद्यार्थी थे और हमे सिखाने के लिए आये थे। बड़े अधिकारी ने उन्हें हमारे नायब-अधिकारियों के रूप में नियुक्त कर दिया था। मैं भी सोराबजी की कहीं बात को देख चुका था। मैं भी सोराबजी को सांत्वना दी और निश्चित रहने को कहा। पर सोराबजी झट मानने वाले आदमी नहीं थे।
उन्होंने हँसते-हँसते कहा,'आप भोले है। ये लोग मीठी-मीठी बाते करके आपको ठगेंगे और फिर जब आपकी आँख खुलेगी तब आप कहेंगे -- चलो, सत्याग्रह करे। फिर आप हमे मुशीबत में डालेंगे। '
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