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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


यों ट्रेन में ही मन को हलका करके मैं फीनिक्स पहुँचा। पूछताछ करके जो अधिक जानकारी लेनी थी सो ले ली। यद्यपि मेरे उपवास से सबको कष्ट हुआ, लेकिन उसके कारण वातावरण शुद्ध बना। सबको पाप करने की भयंकरता का बोध हुआ तथा विद्यार्थियो तथा विद्यार्थिनियो के और मेरे बीच सम्बन्ध अधिक ढृढ और सरल बन गया।

इस घटना के फलस्वरूप ही कुछ समय बाद मुझे चौदह उपवास करने का अवसर मिला था। मेरा यह विश्वास है कि उसका परिणाम अपेक्षा से अधिक अच्छा निकला था।

इस घटना पर से मैं यह सिद्ध नहीं करना चाहता कि शिष्यो के प्रत्येक दोष के लिए शिक्षको को सदा उपवासादि करने ही चाहिये। पर मैं जानता हूँ कि कुछ परिस्थितियो में इस प्रकार के प्रायश्चित-रूप उपवास की गुंजाइश जरूर है। किन्तु उसके लिए विवेक और अधिकार चाहिये। जहाँ शिक्षक और शिष्य के बीच शुद्ध प्रेम-बन्धन नहीं है, जहाँ शिक्षक को अपने शिष्य के दोष से सच्चा आघात नहीं पहुँचता, जहां शिष्यो के मन में शिक्षक के प्रति आदर नहीं है, वहाँ उपवास निरर्थक है और कदाचित हानिकारक भी हो सकता है। ऐसे उपवास या एकाशन के विषय में शंका चाहे हो, परन्तु इस विषय में मुझे लेशमात्र भी शंका नहीं कि शिक्षक शिष्य के दोषो के लिए कुछ अंश में जरूर जिम्मेदार है।

सात उपवास और एकाशन हम दोनों में से किसी के लिए कष्टकर नहीं हुए। इस बीच मेरा कोई भी काम बन्द या मन्द नहीं रहा। इस समय में मैं केवल फलाहारी ही रहा था। चौदह उपवासो का अन्तिम भाग मुझे काफी कष्टकर प्रतीत हुआ था। उस समय मैं रामनाम के चमत्कार को पूरी तरह समझा न था। इस कारण दुःख सहन करने की शक्ति मुझमे कम थी। उपवास के दिनो में कैसा भी प्रयत्न करके पानी खूब पीना चाहिये, इस बाह्य कला क मुझे जानकारी न थी। इस कारण भी ये उपवास कष्टप्रद सिद्ध हुए। इसके अतिरिक्त, पहले उपवास सुख-शान्तिपूर्वक हो गये थे, अतएव चौदह दिन के उपवासो के समय मैं असावधान बन गया था। पहले उपवासो के समय मैं रोज कूने का कटिस्नान करता था। चौदह दिनो के उपवास में दो या तीन दिन के बाद मैंने कटिस्नान बन्द कर दिया। पानी का स्वाद अच्छा नहीं लगता था और पानी पीने पर जी मचलाता था, इससे पानी बहुत ही कम पीता था। फलतः मेरा गला सूखने लगा, मैं क्षीण होने लगा और अंतिम दिनो में तो मैं बहुत धीमी आवाज में बोल पाता था। इतना होने पर भी लिखने का आवश्यक काम मैं अन्तिम दिन तक कर पाया था और रामायण इत्यादि अंत तक सुनता रहा था। कुछ प्रश्नो के विषय में सम्मति देने का आवश्यक कार्य भी मैं कर सकता था।

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