जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
आत्मिक शिक्षा
विद्यार्थियो के शरीर और मन को शिक्षित करने की अपेक्षा आत्मा को शिक्षित करने में मुझे बहुत परिश्रम करना पड़ा। आत्मा के विकास के लिए मैंने धर्मग्रंथो पर कम आधार रखा था। मैं मानता था कि विद्यार्थियो को अपने अपने धर्म के मूल तत्त्व जानने चाहिये, अपने अपने धर्मग्रंथो का साधारण ज्ञान होना चाहिये। इसलिए मैंने यथाशक्ति इस बात की व्यवस्था की थी कि उन्हे यह ज्ञान मिल सके। किन्तु उसे मैं बुद्धि की शिक्षा का अंग मानता हूँ। आत्मा की शिक्षा एक बिल्कुल भिन्न विभाग है। इसे मैं टॉल्सटॉय आश्रम के बालकों को सिखाने लगा उसके पहले ही जान चुका था। आत्मा का विकास करने का अर्थ है चरित्र का निर्माण करना, ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना। इस ज्ञान को प्राप्त करने में बालकों को बहुत ज्यादा मदद की जरूरत होती है और इसके बिना दूसरा ज्ञान व्यर्थ है, हानिकारक भी हो सकता है, ऐसा मेरा विश्वास था।
मैंने सुना हैं कि लोगों में यह भ्रम फैला हुआ है कि आत्मज्ञान चौथे आश्रम में प्राप्त होता है। लेकिन जो लोग इस अमूल्य वस्तु को चौथे आश्रम तक मुलतवी रखते है, वे आत्मज्ञान प्राप्त नहीं करते, बल्कि बुढ़ापा और दूसरी परन्तु दयाजनक बचपन पाकर पृथ्वी पर भाररूप बनकर जीते है। इस प्रकार का सार्वत्रिक अनुभव पाया जाता है। संभव है कि सन् 1911-12 में मैं इन विचारो को इस भाषा में न रखता, पर मुझे यह अच्छी तरह याद है कि उस समय मेरे विचार इसी प्रकार के थे।
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