जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
|
0 |
महात्मा गाँधी की आत्मकथा
किन्तु मैंने हृदय की शिक्षा को अर्थात् चरित्र के विकास को हमेशा पहला स्थान दिया है। और, यह सोचकर कि उसका परिचय तो किसी भी उमर में और कितने ही प्रकार के वातावरण में पले हुए बालकों और बालिकाओ को न्यूनाधिक प्रमाण में कराया जा सकता है, इन बालकों और बालिकाओ के साथ मैं रात-दिन पिता की तरह रहता था। मैंने चरित को उनकी शिक्षा की बुनियाद माना था। यदि बुनियाद पक्की हो, तो अवसर आने पर दूसरी बाते बालक मदद लेकर या अपनी ताकत से खुद जान-समझ सकते है।
फिर भी मैं समझता था कि थोड़ा-बहुत अक्षर-ज्ञान तो कराना ही चाहिये, इसलिए कक्षाये शुरू की और इस कार्य में मैंने केलनबैक की और प्रागजी देसाई की सहायता ली।
शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता को मैं समझता था। यह शिक्षा उन्हें सहज ही मिल रही था।
आश्रम में नौकर तो थे ही नहीं। पाखाना-सफाई से लेकर रसोई बनाने तक के सारे काम आश्रमवासियो को ही करने होते थे। वहाँ फलो के पेड़ बहुत थे। नयी फसल भी बोनी थी। मि. केलनबैक को खेती का शौक था। वे स्वयं सरकार के आदर्श बगीचो से जाकर थोड़े समय तक तालीम ले आये थे। ऐसे छोटे-बडे सबको, जो रसाई के काम में न लगे होते थे, रोज अमुक समय के लिए बगीचे में काम करना पड़ता था। इसमे बड़ा हिस्सा बालकों का था। बड़े-बड़े गड्ढे खोदना, पेड़ काटना, बोझ उठाकर ले जाना आदि कामों से उनके शरीर अच्छी तरह कसे जाते थे। इसमे उन्हे आनन्द आता था। और इसलिए दूसरी कसरत या खेल-कूद की उन्हें जरूरत न रहती थी। काम करने में कुछ विद्यार्थी अथवा कभी-कभी सब विद्यार्थी नखरे करते थे, आलस्य करते थे। अकसर इन बातो की ओर से मैं आँख मीच लेता था। कभी-कभी उनसे सख्ती से काम लेता था। मैं यह भी देखता था कि जब मैं सख्ती करता था, तब उनका जी काम से ऊब जाता था। फिर भी मुझे याद नहीं पड़ता कि बालकों ने सख्ती का कभी विरोध किया हो। जब-जब मैं सख्ती करता तब-तब उन्हें समझता और उन्हीं से कबूल कराता था कि काम के समय खेलने की आदत अच्छी नहीं मानी जा सकती। वे तत्काल तो समझ जाते, पर दूसरे ही क्षण भूल भी जाते। इस तरह हमारी गाड़ी चलती थी। किन्तु उनके शरीर मजबूत बनते जा रहे थे।
|