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जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग

सत्य के प्रयोग

महात्मा गाँधी

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :716
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9824
आईएसबीएन :9781613015780

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महात्मा गाँधी की आत्मकथा


जिन दिनो हम साथ रहते थे, उन्ही दिनो दूध सम्बन्धी उक्त चर्चा हुई थी। मि. केलनबैक ने सलाह दी, 'दूध के दोषो को चर्चा तो हम प्रायः करते ही है। तो फिर हम दूध छोड़ क्यों न दे? उसकी आवश्यकता तो है ही नहीं। ' उनकी इस राय से मुझे सानन्द आश्चर्य हुआ। मैंने इस सलाह का स्वागत किया और हम दोनों ने उसी क्षण टॉल्सटॉय फार्म पर दूध का त्याग किया। यह घटना सन् 1912 में घटी।

इतने त्याग से मुझे शान्ति न हुई। दूध छोड़ने के कुछ ही समय बाद केवल फलाहार के प्रयोग का भी हमने निश्चय किया। फलाहार में भी जो सस्ते से सस्ते फल मिले, उनसे ही अपना निर्वाह करने का हमारा निश्चय था। गरीब से गरीब आदमी जैसा जीवन बिताता है, वैसा ही जीवन बिताने की उमंग हम दोनों को थी। हमने फलाहार की सुविधा का भी खूब अनुभव किया। फलाहार में अधिकतर चूल्हा जलाने की आवश्यकता ही होती थी। बिना सिकी मूंगफली, केले, खजूर, नीबू और जैतून का तेल -- यह हमारा साधारण आहार बन गया।

ब्रह्मचर्य का पालन करने की इच्छा रखनेवालो को यहाँ एक चेतावनी देने की आवश्यकता है। यद्यपि मैंने ब्रह्मचर्य के साथ आहार और उपवास का निकट सम्बन्ध सूचित किया है, तो भी यह निश्चित है कि उसका मुख्य आधार मन पर है। मैंला मन उपवास से शुद्ध नहीं होता। आहार का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। मन का मैंल तो विचार से, ईश्वर के ध्यान से और आखिर ईश्वरी प्रसाद से ही छूटता है। किन्तु मन का शरीर के साथ निकट सम्बन्ध है और विकारयुक्त मन विकारयुक्त आहार की खोज में रहता है। विकारी मन अनेक प्रकार के स्वादो और भोगो की तलाश में रहता है और बाद में उन आहारो तथा भोगो का प्रभाव मन पर पड़ता है। अतएव उस हद तक आहार पर अंकुश रखने की और निराहार रहने की आवश्यकता अवश्य उत्पन्न होती है। विकारग्रस्त मन शरीर और इन्द्रियो के अधीन होकर चलता है, इस कारण भी शरीर के लिए शुद्ध औऱ कम-से-कम विकारी आहार की मर्यादा की और प्रसंगोपात निराहार की -- उपवास की -- आवश्यकता रहती है। अतएव जो लोग यह कहते है कि संयमी के लिए आहार की मर्यादा की अथवा उपवास की आवश्यकता नहीं है, वे उतने ही गलती पर है जितने आहार तथा उपवास को सर्वस्व माननेवाले। मेरा अनुभव तो मुझे यह सिखाता है कि जिसका मन संयम की ओर बढ़ रहा है, उसके लिए आहार की मर्यादा और उपवास बहुत मदद करनेवाले है। इसकी सहायया के बिना मन की निर्विकारता असम्भव प्रतीत होती है।

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