जीवनी/आत्मकथा >> सत्य के प्रयोग सत्य के प्रयोगमहात्मा गाँधी
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महात्मा गाँधी की आत्मकथा
मुझे कायिक ब्रह्मचर्य के पालन में भी महान कष्ट उठाना सकता है कि मैं इसके विषय में निर्भय बना हूँ। लेकिन अपने विचारो पर मुझे जो जय प्राप्त करनी चाहिये, वह प्राप्त नहीं हो सकी है। मुझे नहीं लगता कि मेरे प्रयत्न में न्यूनता रहती है। लेकिन मैं अभी तक यह समझ नहीं सका हूँ कि हम जिन विचारो को नहीं चाहते, वे हम पर कहाँ से और किस प्रकार हमला करते है। मुझे इस विषय में सन्देह नहीं है कि मनुष्य के पास विचारो को रोकने की चाबी है। लेकिन अभी तो मैं इस निर्यण पर पहुँचा हूँ कि यह चाबी भी हरएक को अपने लिए शुद खोज लेनी है। महापुरूष हमारे लिए जो अनुभव छोड़ गये है, वे मार्ग-दर्शक है। वे सम्पूर्ण नहीं है। सम्पूर्णता तो केवल प्रभु-प्रसादी है। और इसी हेतु से भक्तजन अपनी तपश्चर्या द्वारा पुनीत किये हुए औऱ हमे पावन करने वाले रामानामादि मंत्र छोड़ गये है। संपूर्ण ईश्वरार्पण के बिना विचारो पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त हो ही नहीं सकती। यह वचन मैंने सब धर्मग्रंथो में पढा है और इसकी सचाई का अनुभव मैं ब्रह्मचर्य के सूक्ष्मतम पालन के अपने इस प्रयत्न के विषय में कर रहा हूँ।
पर मेरे महान प्रयत्न और संघर्ष का थोड़ा बहुत इतिहास अगले प्रकरणों में आने ही वाला है। इस प्रकरण के अन्त में तो मैं यही कर दूँ कि अपने उत्साह के कारण मुझे आरम्भ में को व्रत का पालन सरल प्रतीत हुआ। व्रत लेते ही मैंने एक परिवर्तन कर डाला। पत्नी के साथ एक शय्या का अथवा एकान्त को मैंने त्याग किया। इस प्रकार जिस ब्रह्मचर्य का पालन मैं इच्छा या अनिच्छा से सन् 1900 से करता आ रहा था, व्रत के रूप में उसका आरम्भ 1906 के मध्य से हुआ।
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